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________________ ३९२ धर्मामृत ( अनगार) क्रोधादिबलादवतश्चत्वारस्तदभिधा मुनेर्दोषाः । पुरहस्तिकल्पवेन्नातटकासोरासीयनवत् स्युः ॥२३॥ तदभिधाः-क्रोध-मान-माया-लोभनामानः । कासी-वाराणसी । कथास्तूत्प्रेक्ष्य वाच्याः ॥२३॥ अथ पूर्वसंस्तव-पश्चात्संस्तवदोषावाह हस्तिकल्पपुर, वेन्नातट, कासी और रासीयन नामके नगरोंकी तरह क्रोध, मान, माया और लोभके बलसे भोजन प्राप्त करनेवाले मुनिके क्रोध, मान, माया, लोभ नामके दोष होते हैं ।।२३|| विशेषार्थ-यदि साधु क्रोध करके भिक्षा प्राप्त करता है तो क्रोध नामका उत्पादन दोष होता है । यदि मान करके भिक्षा प्राप्त करता है तो मानदोष होता है। यदि मायाचार करके भिक्षा उत्पन्न करता है तो माया नामक उत्पादन दोष होता है । यदि लोभ दिखलाकर भिक्षा प्राप्त करता है तो लोभ नामक उत्पादन दोष होता है । हस्तिकल्प नगर में किसी साधुने क्रोध करके भिक्षा प्राप्त की थी। वेन्नातट नगरमें किसी साधुने मानसे भिक्षा प्राप्त की थी। वाराणसीमें किसी साधु ने मायाचार करके भिक्षा प्राप्त की थी। राशियानमें किसी साधुने लोभ बतलाकर भिक्षा प्राप्त की थी। मूलाचारमें (६।३५) इन नगरोंका उल्लेख मात्र है और टीकाकारने केवल इतना लिखा है कि इनकी कथा कह लेना चाहिए । पिण्डनियुक्तिमें (गा. ४६१) उन नगरोंका नाम हस्तकल्प, गिरिपुष्पित, राजगृह और चम्पा दिया है । और कथाएँ भी दी हैं-हस्तकल्प नगरमें किसी ब्राह्मणके घरमें किसी मृतकके मासिक श्राद्धपर किसी साधुने भिक्षाके लिए प्रवेश किया। किन्तु द्वारपालने मना कर दिया । तब साधुने क्रुद्ध होकर कहा-आगे देना। दैवयोगसे फिर कोई उस घरमें मर गया। उसके मासिक द्ध पर पुनः वह साध भिक्षाके लिए आया। द्वारपालने पुनः मना किया और वह पुनः क्रुद्ध होकर बोला-आगे देना। दैवयोगसे उसी घरमें फिर एक मनुष्य मर गया। उसके मासिक श्राद्धपर पुनः वह भिक्षु भिक्षाके लिए आया। द्वारपालने पुनः रोका और साधुने पुनः 'आगे देना' कहा। यह सुनकर द्वारपालने विचारा-पहले भी इसने दो बार शाप दिया और दो आदमी मर गये। यह तीसरी बेला है। फिर कोई न मर जाये। यह विचारकर उसने गृहस्वामीसे सब वृत्तान्त कहा। और गृहस्वामीने सादर क्षमा याचनापूर्वक साधुको भोजन दिया। यह क्रोधपिण्डका उदाहरण है। इसी तरह एक साधु एक गृहिणीके घर जाकर भिक्षामें सेवई माँगता है। किन्तु गृहिणी नहीं देती। तब साधु अहंकार में भरकर किसी तरह उस स्त्रीका अहंकार चूर्ण करनेके लिए उसके पतिसे सेवई प्राप्त करता है । यह मानसे प्राप्त आहारका उदाहरण है। इसी तरह माया और लोभके भी उदाहरण हैं। श्वेताम्बर परम्परामें साधु घर-घर जाकर पात्रमें भिक्षा लेते हैं। इसलिए ये कथानक उनमें घटित होते हैं । दिगम्बर परम्परामें तो इस तरह भिक्षा माँगनेकी पद्धति नहीं है । अतः प्रकारान्तरसे इन दोषोंकी योजना करनी चाहिए। यथा-सुस्वादु भोजनके लोभसे समृद्ध श्रावकोंको फाटकेके आँक बतलानेका लोभ देकर भोजनादि प्राप्त करना । या क्रुद्ध होकर शापका भय देकर कुछ प्राप्त करना आदि ॥२३॥ आगे पूर्वस्तुति और पश्चात् स्तुतिदोषोंको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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