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________________ पंचम अध्याय ३९१ अथ वनीपकाजीवदोषावाह दातुः पुण्यं श्वादिदानादस्त्येवेत्यनुवृत्तिवाक् । वनीपकोक्तिराजीवो वृत्तिः शिल्पकुलादिना ॥२२॥ दातुरित्यादि-शुनक-काक-कुष्टाद्यातमध्याह्नकालागतमांसाद्यासक्तद्विजदीक्षोपजीवि-पाश्वस्थतापसादिश्रमणछात्रादिभ्यो दत्ते पुण्यमस्ति न वेति दानपतिना पृष्ठे सत्यस्त्येवेत्यनुकूलवचनं भोजनाद्यर्थं वनीपकवचनं नाम दोषो दीनत्वादिदोषदर्शनात् । उक्तं च 'साण-किविण-तिहि-माहण-पासंडिय-सवण-कागदाणादी। पुण्णं ण वेति पुढे पुण्णं तिय वणिवयं वयणं ॥' [ मूलाचार गा. ४५१ ] ___ वृत्तिरित्यादि-हस्तविज्ञान - कुल - जात्यैश्वर्यतपोऽनुष्ठानान्यात्मनो निर्दिश्य जीवनकरणमित्यर्थः। ९ उक्तं च 'आजीवस्तप ऐश्वयं शिल्पं जातिस्तथा कुलम् । तैस्तूत्पादनमाजीव एष दोषः प्रकथ्यते ॥' दोषत्वं चात्र वीर्यागूहनदीनत्वादिदोषदर्शनात् ॥२२॥ अथ हस्तिकल्पादिनगरजाताख्यानप्रकाशनमुखेन क्रोधादिसंज्ञाश्चतुरो दोषानाहपता कैसे लगा। सब बोले-तम्हारी पत्तीने कहा था। उस समय वह साध भी उसके घरमें उपस्थित था। पतिने पत्नीसे पूछा- तुमने मेरा आना कैसे जाना ? वह बोली-साधुके निमित्तज्ञानसे जाना। तब उसने पुनः पूछा-उसका विश्वास कैसे किया ? पत्नी बोलीतुम्हारे साथ मैंने पहले जो कुछ चेष्टाएँ की, वार्तालाप किया, यहाँ तक कि मेरे गुह्य प्रदेश में जो चिह्न है वह सब साधुने सच-सच बतला दिया। तब वह क्रुद्ध होकर साधुसे बोलाबतलाओ इस घोड़ीके गर्भ में क्या है ? साधुने कहा-पाँच रंगका बच्चा। उसने तुरन्त घोड़ीका पेट फाड़ डाला । उसमें-से वैसा ही बच्चा निकला । तब उसने साधुसे कहा-यदि तुम्हारा कथन सत्य न निकलता तो तुम भी जीवित न रहते । अतः साधुको निमित्तका प्रयोग कभी भी नहीं करना चाहिए ॥२१॥ वनीपक और आजीव दोषको कहते हैं कुत्ते आदिको दान करनेसे पुण्य होता ही है इस प्रकार दाताके अनुकूल वचन कहकर भोजन प्राप्त करना वनीपकवचन नामक दोष है। अपने हस्तविज्ञान, कुल, जाति, ऐश्वर्य, तप आदिका वर्णन करके भोजन प्राप्त करना आजीव नामक दोष है ॥२२॥ विशेषार्थ -तात्पर्य यह है कि दाताने पूछा-कुत्ता, कौआ, कुष्ट आदि व्याधिसे पीड़ित अतिथि, मध्याह्न कालमें आये भिक्षुक, मांसभक्षी ब्राह्मण, दीक्षासे जीविका करनेवाले पाश्वस्थ तापस आदि श्रमण, छात्र आदिको दान देने में पुण्य है या नहीं? भोजन प्राप्त करनेके लिए 'अवश्य पुण्य है' ऐसा कहना वनीपक वचन नामक दोष है क्योंकि उसमें दीनता पायी जाती है । वनीपकका अर्थ है याचक-भिखारी। भिखारी-जैसे वचन बोलकर भोजन प्राप्त करना दोष है । मूलाचारमें भी ऐसा ही कहा है ।।२२।। ___आगे हस्तिकल्प आदि नगरोंमें घटित घटनाओंके प्रकाशन द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ नामके चार दोषोंको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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