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________________ ३९० धर्मामृत ( अनगार) दूतोऽशनादेरादानं संदेशनयनादिना। तोषितादातुरष्टाङ्गनिमित्तेन निमित्तकम् ॥२१॥ दूतः । दोषत्वं चास्य दूतकर्मशासनदूषणात् । उक्तं च 'जलस्थलनभःस्वान्यग्रामस्वपरदेशतः । सम्बन्धे वचसो नीतितदोषो भवेदसौ ।' [ ] अष्टाङ्गनिमित्तेन-व्यञ्जनादिदर्शनपूर्वकशुभाशुभज्ञानेन। तत्र व्यञ्जनं-मसकतिलकादिकम् । अङ्गंकरचरणादि । स्वर:--शब्दः । छिन्नं-खड्गादिप्रहारो वस्त्रादिछेदो वा । भीम-भूमिविभागः । आन्तरिक्ष-- मादित्यग्रहाद्युदयास्तमनम् । लक्षणं-नन्दिकावर्तपद्मचक्रादिकम् । स्वप्नः सुप्तस्य हस्ति-विमानमहिषारोहणादिदर्शनम् । भूमिगर्जनं दिग्दाहादेरत्रवान्तर्भावः । उक्तं च 'लाञ्छनाङ्गस्वरं छिन्नं भौमं चैव नभोगतम् । लक्षणं स्वप्नेतश्चेति निमित्तं त्वष्टधा भवेत् ॥' [ दोषत्वं चात्र रसास्वादनदैन्यादिदोषदर्शनात् ॥२१॥ किसी सम्बन्धीके मौखिक या लिखित सन्देशके पहुँचाने आदिसे सन्तुष्ट हुए दातासे भोजन आदि ग्रहण करना दूत दोष है। अष्टांगनिमित्त बतलानेसे सन्तुष्ट हुए दाताके द्वारा दिये हुए आहारको ग्रहण करना निमित्त दोष है ॥२१॥ विशेषार्थ-मूलाचारमें कहा है-'जिस ग्राममें या जिस देशमें साधु रहता हो वह उसका स्वग्राम और स्वदेश है। साधु जल-थल या आकाशसे, स्वग्रामसे परग्राम या स्वदेशसे परदेश जाता हो तो कोई गृहस्थ कहे कि महाराज ! मेरा यह सन्देश ले जाना । उस सन्देशको पानेवाला गृहस्थ यदि प्रसन्न होकर साधुको आहार आदि दे और वह ले तो उसे दूती दोष लगता है। __ महानिमित्त आठ हैं--व्यंजन, अंग, स्वर, छिन्न, भौम, अन्तरीक्ष, लक्षण, स्वप्न । शरीरके अवयवोंको अंग कहते हैं। उनपर जो तिल, मशक आदि होते हैं उन्हें व्यंजन कहते हैं । शब्दको स्वर कहते हैं। तलवार आदिके प्रहारको या वस्त्र आदिके छेदको छिन्न कहते हैं। भूमिभागको भौम कहते हैं। सूर्य आदिके उदय-अस्त आदिको अन्तरीक्ष कहते हैं। शरीर में जो कमल चक्र आदि चिह्न होते हैं उन्हें लक्षण कहते हैं । स्वप्न तो प्रसिद्ध है। इन आठ महानिमित्तोंके द्वारा भावी शुभाशुभ बतलाकर यदि भोजनादि प्राप्त किया जाता है तो वह निमित्त नामक उत्पादन दोष है। पिण्डनियुक्ति (गा. ४३६) में निमित्त दोषकी बुराई बतलानेके लिए एक कथा दी है--एक ग्रामनायक परदेश गया। उसकी पत्नीने किसी निमित्तज्ञानी साधुसे अपने पतिकी कुशलवार्ता पूछी। उसने बताया कि वह शीघ्र आयेगा । उधर परदेशमें ग्रामनायकके मनमें हुआ कि मैं चुपचाप एकाकी जाकर देखू कि मेरी पत्नी दुःशीला है या सुशीला। उधर ग्राममें सब लोग साधुके कथनानुसार उसकी प्रतीक्षा करते बैठे थे। जैसे ही वह पहुँचा सब आ गये। उसने पूछा-तुम लोगोंको मेरे आनेका १. सम्बन्धि -भ. कु. च.। २. स्वपनश्चेति-भ. कु. च. । ३. 'जलथलआयासगदं सयपरगामे सदेसपरदेसे । संदंधिवयणणयणं दूदीदोसो हवदि एसो॥-६।२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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