SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ ९ ३८४ १२ अथ प्रादुष्कारक्रीते निर्दिशति प्रादुष्कारः अथ संक्रमः प्रकाशश्चेति द्वेधा । तत्र संयते गृहमायाते भाजनभोजनादीनामन्यस्थानादन्यस्थाने नयनं संक्रमः । कटकपाट काण्डपटाद्यपनयनं भाजनादीनां भस्मादिनोदकादिना वा निर्माजनं प्रदीपज्वलना६ दिकं च प्रकाशः । उक्तं च धर्मामृत (अनगार ) पात्रादेः संक्रमः साधौ कटाद्याविष्क्रियाऽऽगते । प्रादुष्कारः स्वान्यगोर्थविद्याद्यः क्रीतमाहृतम् ॥१२॥ 'संक्रमश्च प्रकाशश्च प्रादुष्कारो द्विधा मतः । एकोऽत्र भाजनादीनां कटादिविषयोऽपरः ॥' [ ] स्वेत्यादिद - स्वस्यात्मनः सचित्तद्रव्यैर्वृषभादिभिरचित्तद्रव्यैर्वा सुवर्णादिभिर्भावैर्वा प्रज्ञप्त्यादिविद्याचेष्टेकादिमन्त्रलक्षणैः परस्य वा तैरुभयैर्द्रव्यभावैर्यथा संभवमाहृतं संयतं ( - ते) भिक्षायां प्रविष्टे तां .२ योज्यद्रव्यं तत् क्रीतमिति दोषः कारुण्यदोषदर्शनात् । उक्तं च दत्वा नीतं Jain Education International 'क्रीतं तद्विविधं द्रव्यं भावः स्वकपरं द्विधा । सचित्तादिभवो द्रव्यं भावो द्रव्यादिकं तथा ॥ ॥ १३ ॥ आयोजन बलि है। भोजन पकानेके पात्र से अन्य पात्रमें भोजन निकालकर कहीं अन्यत्र रख देना न्यस्त या स्थापित दोष है । ऐसे भोजनको यदि रखनेवालेसे कोई दूसरा व्यक्ति उठाकर दे देवे तो परस्पर में विरोध होने की सम्भावना रहती है ||१२|| प्रादुष्कार और क्रीत दोषको कहते हैं साधु के घर में आ जानेपर भोजनके पात्रोंको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाना संक्रम नामक प्रादुष्कर दोष है । साधुके घर में आ जानेपर चटाई, कपाट, पर्दा आदि हटाना, बरतनों को माँजना-धोना, दीपक जलाना आदि प्रकाश नामक प्रादुष्कर दोष है । साधु भिक्षा के लिए प्रवेश करनेपर अपने पराये या दोनोंके सचित्त द्रव्य बैल वगैरह से अथवा अचित्त द्रव्य सुवर्ण वगैरह से या विद्या मन्त्रादि रूप भावोंसे या द्रव्य भाव दोनोंसे खरीदा गया भोज्य द्रव्य क्रीत दोषसे युक्त होता है ||१३|| 3 विशेषार्थ–मूलाचार ( ६ । १५-१६ ) में कहा है - 'प्रादुष्कार के दो भेद हैं। भोजनके पात्रोंको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाना संक्रमण है । मण्डपमें प्रकाश करना प्रकाश दोष है ।' - स्वद्रव्य 'क्रीत के दो भेद हैं- द्रव्य और भाव । इन दोनोंके भी दो-दो भेद हैंपरद्रव्य, स्वभाव परभाव । गाय-भैंस वगैरह सचित्त द्रव्य है । विद्या मन्त्र आदि भाव है । मुनि भिक्षा के लिए प्रविष्ट होनेपर अपना या पराया सचित्त आदि द्रव्य देकर तथा स्वमन्त्रपरमन्त्र या स्वविद्या- परविद्याको देकर आहार खरीदकर देना क्रीत दोष है । इससे साधुके १. चेटका भ. कु. च. । २. तान् भ. कु. च. । ३. 'पादुक्कारो दुविहो संकमण पयासणा य बोधव्वो । भायणभोयणदीणं मंडव विरलादियं कमसो' ॥ ४. 'कीदयणं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरं दुविहं । सच्चित्तादीदध्वं विज्जामंतादि भावं च ' ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy