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________________ पंचम अध्याय ३८३ ( तदपकृष्य पूर्वाह्ण यद्दीयते, यच्चापराले देयमिति स्थितं तदपकृष्य मध्याह्न यद्दीयते इत्यादि तत्सर्वं कालहानिकृतं सूक्ष्म प्राभृतकं भण्यते । तथा यत् पूर्वाह्न देयमिति स्थितं ) तदुत्कृष्य मध्याह्नादौ यद्दीयते तत्सब कालवृद्धिकृतं सूक्ष्म प्राभृतकम् । तथा चोक्तम् 'द्वेधा प्राभृतकं स्थूलं सूक्ष्म तदुभयं द्विधा । अवसपंस्तथोत्सपं: कालहान्यतिरेकतः ।।' 'परिवृत्या दिनादीनां द्विविधं बादरं मतम् । दिनस्याद्यन्तमध्यानां द्वेधा सूक्ष्म विपर्ययात् ॥ [ ] ॥११:! अथ बलिन्यस्ते लक्षयति यक्षादिबलिशेषोऽर्चासावा वा यतौ बलिः। न्यस्तं क्षिप्त्वा पाकपात्रात्पात्यादौ स्थापितं क्वचित् ॥१२॥ यक्षादिबलिशेष:-पक्षनागमातृकाकुलदेवतापित्राद्यर्थं यः कृतो बलिस्तस्य शेषो दत्तावशिष्टोंऽशः । अर्चासावा-यतिनिमित्तं चन्दनोद्गालनादिः । पाति:-पात्रविशेषः। क्वचित्-स्वगृहे परगृहे वा स्थाप- १२ निकायां धतम । तच्चान्यदात्रा दीयमानं विरोधादिकं कुर्यादिति दुष्टम् ॥१२॥ प्राभृतकके दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म । इनमें-से भी प्रत्येकके दो भेद हैं-उत्कर्षण और अपकर्षण । उत्कर्षण अर्थात् कालवृद्धि, अपकर्षण अर्थात् कालहानि । दिवस, पक्ष, मास और वर्ष में हानि या वृद्धि करके देनेसे बादरके दो भेद हैं और पूर्वाल, अपराह्न एवं मध्याह्नकी वेलाको घटा-बढ़ाकर देनेसे सूक्ष्म प्राभृतकके दो भेद हैं। पिण्डनियुक्ति ( गा. २८५ आदि ) में भी भेद तो ये ही कहे हैं किन्तु टीकामें उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-विहार करते हुए समागत साधुओंको देखकर कोई श्रावक विचारता है-यदि ज्योतिषियोंके द्वारा बतलाये गये दिन विवाह करूँगा तो साधुगण विहार करने चले जायेंगे। तब मेरे विवाह में बने मोदक आदि साधुओंके उपयोगमें नहीं आ सकेंगे। ऐसा सोचकर जल्दी विवाह रचाता है। या यदि विवाह जल्दी होनेवाला हो और साधु समुदाय देरमें आनेवाला हो तो विवाह देरसे करता है यह बादर प्राभृतक दोष है। कोई स्त्री बैठी सूत कातती है । बालक भोजन माँगता है तो कहती है-रुईकी पूनी बना लूँ तो तुझे भोजन दूंगी। इसी बीच में यदि साधु आते हुए सुन ले तो वह नहीं आता है क्योंकि उसके आनेसे उसे साधु के लिए जल्दी उठना होगा और उसने जो बालकसे पूनी कातनेके पश्चात् भोजन देनेकी प्रतिज्ञा की थी उससे पहले ही भोजन देनेपर अवसपण दोष होता है। अथवा कातती हुई स्त्री बालकके भोजन माँगनेपर कहती है किसी दूसरे कामसे उठूगी तो तुझे भी भोजन दूँगी। इसी बीच में यदि साधु आये और उसकी बात सुन ले तो लौट जाता है। अथवा साधुके न सुननेपर भी साधुके आनेपर बालक माँसे कहता है-अब क्यों नहीं उठती, अब तो साधु आ गये, अब तो तुम्हें उठना ही होगा, अब तो साधु के कारण हमें भी भोजन मिलेगा। बालकके ये वचन सुनकर साधु भोजन नहीं लेता। यदि ले तो अवसर्पणरूप सूक्ष्म प्राभृतिका दोष लगता है। इसी तरह उत्सपणरूप दोष भी जानना ॥११॥ बलि और न्यस्त दोषका स्वरूप कहते हैं यक्ष, नाग, कुलदेवता, पितरों आदि के लिए बनाये गये उपहारमें-से बचा हुआ अंश साधुको देना बलि दोष है। अथवा यतिके निमित्तसे फूल तोड़ना आदि सावद्य पूजाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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