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________________ अथ प्रामित्यपरिवर्तितयोः स्वरूपमाह - पंचम अध्याय उद्धारानीतमन्नादि प्रामित्यं वृद्धयवृद्धिमत् । व्रीह्यन्नाद्येन शाल्यन्नाद्युपात्तं परिवर्तितम् ॥ १४ ॥ वृद्धयवृद्धिमत् - सवृद्धिकमवृद्धिकं चेत्यर्थः । उक्तं च 'भक्तादिकमृणं यच्च तत्प्रामित्यमुदाहृतम् । तत्पुनद्वविधं प्रोक्तं सवृद्धिकमथेतरत् ॥' [ ] दोषत्वं चास्य दातुः क्लेशायासधरणादिकदर्थन करणात् । ब्रह्मन्नं - षष्ठिक भक्तम् । उपात्तं - साधुभ्यो दास्यामीति गृहीतम् । दोषत्वं चास्य दातुः क्लेशकरणात् । उक्तं च 'ब्रीहिभक्तादिभिः शालिभक्ताद्यं स्वीकृतं च यत् । संयतानां प्रदानाय तत्परीवर्तमिष्यते ॥' [ Jain Education International ३८५ 1 118811 चित्तमें करुणाभाव उत्पन्न होता है । पिण्ड नियुक्ति (गा. २९९ आदि) में भी प्रादुष्करण के ये दो भेद किये हैं । उनका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है - तीन प्रकारके चूल्हे होते हैं - एक घरके अन्दर जिसे बाहर भी रखा जा सकता है, दूसरा बाहर जो पहले से बना है, तीसरा जो बाहरमें साधुके निमित्त बनाया गया है । साधुको आता देखकर गृहिणी सरलभावसे कहती है- महाराज ! आप अन्धकार में भिक्षा नहीं लेते इसलिए बाहर ही बनाया है । अथवा साधुके दोषकी आशंकासे पूछनेपर गृहिणी सरलभावसे उक्त उत्तर देती है । यह संक्रामण प्रादुष्करण दोष है । प्रकाशके लिए दीवार में छेद करनेपर या छोटे द्वारको बड़ा करनेपर या दूसरा द्वार बनवानेपर या दीपक आदि जलानेपर साधु यदि पूछे तो सरल भावसे उक्त उत्तर देने पर साधु प्रादुष्करण दोषसे दुष्ट भोजन नहीं करते । क्रीत दोषका कथन भी उक्त प्रकार है । अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा उसे स्पष्ट किया है ||१३|| प्रामित्य और परिवर्तित दोषोंका स्वरूप कहते हैं नको दान देने के लिए जो अन्न आदि उधार रूपसे लिया जाता है, वह प्रामित्य दोषसे युक्त है । वह दो प्रकारका होता है - एक वृद्धिमत् अर्थात् जिसपर व्याजके रूपमें लौटाते समय कुछ अधिक देना होता है और दूसरा अवृद्धिमत् अर्थात् बेव्याज । साँठी चावल आदि के बदले में शालिचावल आदि लेना परिवर्तित दोष है || १४ || विशेषार्थ - -जब किसीसे कोई अन्न वगैरह उधार लिया जाता है तो मापकर लिया जाता है इसीसे इस दोषका नाम प्रामित्य है । जो प्रमितसे बना है । प्राकृत शब्दकोश में पामिच्चका अर्थ उधार लेना है । इसीसे मूलाचार के संस्कृत टीकाकारने इसे ऋणदोष नाम दिया है। लिखा है -चर्याके लिए भिक्षुके आनेपर दाता दूसरे के घर जाकर खाद्य वस्तु माँगता है - " तुम्हें चावल आदि वृद्धि सहित या वृद्धिरहित दूँगा मुझे खाद्य वगैरह दो ।" इस प्रकार लेकर मुनियोंको देता है । यह प्रामित्य दोष है क्योंकि दाताके लिए क्लेशका कारण होता है । पिण्ड नियुक्तिमें एक कथा देकर बतलाया है कि कैसे यह ऋण दाताके कष्टका कारण होता है । इसी तरह साधुको बढ़िया भोजन देनेकी भावनासे मोटे चावल के बदले में बढ़िया चावल आदि लेकर साधुको देना परावर्त दोष है । यह भी दाताके क्लेशका कारण होता है । दाताको जो कुछ जैसा भी घर में हो वही साधुको देना चाहिए || १४ || ४९ For Private & Personal Use Only ३ ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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