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________________ ६७२ धर्मामृत ( अनगार) ते केनापि कृताऽऽजवजवजयाः पुंस्पुङ्गवाः पान्तु मां ___ तान्युत्पाद्य पुराऽत्र पञ्च यदि वा चत्वारि वृत्तानि यः। मुक्तिश्रीपरिरम्भशुम्भदसमस्थामानुभावात्मना ___ केनाऽप्येकतमेन वीतविपदि स्वात्माभिषिक्तः पदे ॥१७९॥ केन-शुद्धनिश्चपनयादव्यपदेशेनैकेनैवात्मना । अतिशब्दादशुद्धनिश्चयनयेन पुना रत्नत्रयेणापि । ६ आजवञ्जव:--संसारः । पुंस्पुङ्गवाः-पुरुषोत्तमाः। तानि-प्रसिद्धानि सामायिकादीनि । तत्राद्ययोर्लक्षणं प्रागुक्तम् । त्रयाणां त्विदं यथा 'त्रिंशद्वर्षवया वर्षपृथक्त्वेनास्थितो जिनम् । यो गुप्तिसमित्यासक्तः पापं परिहरेत् सदा ॥ स पञ्चैकयमोऽधीतप्रत्याख्यानो विहारवान् । स्वाध्यायद्वयसंयुक्तो गव्यूत्यर्द्धध्वगो मुनिः ।। मध्याह्नकृद्विगव्यूती गच्छन् मन्दं दिनं प्रति । जिन्होंने पूर्व युगमें इसी भरत क्षेत्रमें उन पूर्वोक्त पाँच चारित्रोंको अथवा उनमें से चार चारित्रोंको धारण करके शुद्ध निश्चयनयसे व्यपदेशरहित एक आत्मासे ही और अशुद्ध निश्चयनयसे रत्नत्रयके द्वारा संसारका नाश किया और जीवन्मुक्तिरूपी लक्ष्मीके आलिंगनसे शोभायमान असाधारण शक्तिके माहात्म्यमय किसी अनिर्वचनीय परमोत्कृष्टके द्वारा अपनी आत्माको दुःखोंसे रहित मोक्षपदमें प्रतिष्ठित किया वे महापुरुष मेरी संसारके कष्टोंसे रक्षा करें ॥१७९॥ विशेषार्थ-इलोकमें 'केनापि' पद संसारको विनष्ट करनेके कारणरूपसे प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ होता है 'किसीसे भी'। इससे बतलाया है कि उसका नाम नहीं लिया जा सकता। यह शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टि है। क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रके दशम अध्याय के अन्तिम सूत्रके सभी टीकाकारोंने कहा है कि प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा व्यपदेशरहित भावसे मुक्ति होती है। इसकी व्याख्या करते हुए भट्टाकलंकदेवने कहा है--प्रत्युत्पन्नग्राही नयसे न तो चारित्रसे मुक्ति होती है न अचारित्रसे मुक्ति होती है किन्तु एक ऐसे भावसे मुक्ति होती है सर्वचनीय है। भतपर्व नयके दो भेद हैं अनन्तर और व्यवहित । अनन्तरकी अपेक्षा यथाख्यात चारित्रसे मुक्ति होती है । व्यवहितकी अपेक्षा चार अर्थात् सामायिक छेदोपस्थापक, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्रसे या परिहारविशुद्धि सहित पाँच चारित्रोंसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है। इसीके अनुसार ऊपर 'केनापि' या चार अथवा पाँच चारित्रसे मुक्ति कही है। परिहारविशुद्धि संयम सभीके होना आवश्यक नहीं है अतः उसके बिना भी मुक्ति हो सकती है । हाँ, मुक्तिके समय जो चारित्र और अचारित्र दोनोंका ही निषेध करते १. 'चारित्रेण केन सिद्धयति ? अव्यपदेशनकचतःपञ्चविकल्पचारित्रेण वा सिद्धिः।'-सर्वार्थ. टी. । २. 'प्रत्युत्पन्नावलेहिनयवशान्न चारित्रेण नाप्यचारित्रेण व्यपदेशरहितभावेन सिद्धिः। भूतपूर्वगतिविधा अनन्तरव्यवहितभेदात् । आनन्तर्येण यथाख्यातचारित्रेण सिद्धयति । व्यवधानेन चतुभिः पञ्चभिर्वा । चतुभिस्तावत् सामायिकछेदोपस्थापनासूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातचारित्रैः । पञ्चभिस्तैरेव परिहारविशुद्धिचारित्राधिकैः ।'-तत्त्वा. वार्तिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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