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________________ चतुर्थ अध्याय कृतीक्षतकषायारिः स्यात्परिहारसंयमी ॥ सूक्ष्मलोभं विदन् जीवः क्षपकः शमकोऽपि वा । fioचिनो यथाख्यातात् स सूक्ष्मसांपरायकः ॥ सर्वकर्मप्रभो मोहे शान्ते क्षीणेऽपि वा भवेत् । छद्मस्थो वीतरागो वा यथाख्यातयमी पुमान् ॥' [ चत्वारि - परिहारविशुद्धिसंयमस्य केषांचिदभावात् । स्थाम - शक्तिः । केनापि अनिर्वचनीयेन ६ ] ॥ १७९ ॥ अथ संयममन्तरेण कायक्लेशादितपोऽनुष्ठानं बन्धसहभाविनिर्जरानिबन्धनं स्यादिति सिद्धयर्थिभिरसावाराध्य इत्युपदिशति - 1 हुए व्यपदेशरहित अनिर्वचनीय भावसे मुक्ति बतलायी है वह अवश्य ही चिन्तनीय क्योंकि यथाख्यात चारित्र तो आत्मस्वभावरूप ही है फिर भी उसका मुक्तिमें निषेध किया है। इनमें से दो चारित्रोंका स्वरूप तो पहले कहा है । शेष तीनोंका स्वरूप इस प्रकार है? – पाँच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त जो पुरुष सदा सावध कार्योंका परिहार करता है और पाँच यमरूप या एक यमरूप संयमका धारक है वह परिहार विशुद्धि संयमी है । जो पुरुष तीस वर्षकी अवस्था तक गृहस्थाश्रम में सुखपूर्वक निवास कर दीक्षा लेता है और वर्षपृथक्त्व तक तीर्थंकरके पादमूलमें रहकर प्रत्याख्यान नामक पूर्वका पाठी होता है, तीनों सन्ध्याकालोंको बचाकर प्रतिदिन दो कोस विहार करता है वह परिहारविशुद्धि संयमी होता है । सूक्ष्म कृष्टिको प्राप्त लोभकषायके अनुभागके उदयको भोगने वाला उपशम श्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी वाला जीव सूक्ष्म साम्पराय संयमका धारक है। सूक्ष्म है कषाय जिसके उसे सूक्ष्म साम्पराय संयमी कहते हैं । यह यथाख्यात संयमसे किंचित् ही न्यून होता है । अशुभ मोहनीय कर्मके उपशम या क्षय होनेपर छद्मस्थ उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती तथा सयोगी और अयोगी जिन यथाख्यात संयमी होते हैं, मोहनीय उपशम या क्षयसे आत्मस्वभावरूप जैसी अवस्था है वैसा ही यह संयम जानना ॥ १७९ ॥ ३७३ संयमके बिना कायक्लेश आदि रूप तपके अनुष्ठानसे निर्जरा तो होती है किन्तु उसके साथ नवीन बन्ध भी होता है इसलिए सिद्धिके अभिलाषियोंको संयमकी आराधनाका उपदेश देते हैं १. कृषीकृत भ. कु. च. २. 'पंच समिदो तिगुत्तो परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं । पंचेक्कजमो पुरिसो परिहारयसंजदो सो हु । तीसं वासो जम्मे वास पुधत्तं खु तित्थयरमूले | पच्चक्खाणं पढिदो संझूण दुगाउय विहारो ॥ लोहं वेदंतो जीव उवसामगो व खवगो वा । सोहुसांपराओ जहखादेणूणओ किंचि ॥ उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि | छदुमट्ठो व जिणो वा जहखादो संजदो सो दु । - गो. जीव. ४७१-७४ गा. Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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