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________________ ३७१ चतुर्थ अध्याय __ रहन्-त्यजन् । यत्नम्-उद्यमम् । उपयोगं-अनुष्ठानम् । एतेन चारित्रेऽन्तर्भूतं तपोऽपि व्याख्यातं प्रतिपत्तव्यम् । यदाहुः 'चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आउंजणा य जो होइ । सो चेव जिणेहि तओ भणिओ असढं चरंतस्स ॥' [ भ. आ. १० ] मूर्छत्-वर्धमानम् । चलदृशे-कटाक्षान् मुञ्चत्यै निकटसंगमाय इत्यर्थः । तथा चोक्तम् 'संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं ।। जीवस्स चरित्तादो दसणणाणपहाणादो॥' [प्रवचनसार ११६ । ] ॥१७८॥ अथ सम्यकुचारित्राराधनावष्टम्भात् पुरातनानिहाऽपि क्षेत्र निरपायपदप्राप्तानात्मनो भवापायसमुच्छेदं याचमानः प्राहकरनेवाला तथा भूख-प्यास आदिकी परीषहोंको निष्कपट रूपसे सहन करनेवाला पुरुष कुछ ऐसे पुण्यकर्मका संचय करता है जिसके उदयसे सांसारिक सम्पत्तियोंका अनुराग उसके प्रति बढ़ जाता है और वे उस पुरुषपर केवल कटाक्षपात ही करनेवाली मुक्तिलक्ष्मीसे ईर्ष्या करने लगती हैं ।।१७८॥ विशेषार्थ-जो व्यक्ति भोगोंकी तृष्णाको त्याग कर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी आराधना करनेके साथ सम्यक्चारित्रकी भी सतत आराधना करते हैं और परीषहोंको निष्कपट भावसे सहते हैं। ऐसा कहनेसे चारित्रमें अन्तर्भूत तपका भी ग्रहण होता है । भगवती आराधनामें कहा है-'उस चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग होता है उसे ही जिनेन्द्रदेवने तप कहा है । जो सांसारिक सुखसे विरक्त होता है वही चारित्रमें प्रयत्नशील होता है। जिसका चित्त सांसारिक सुखमें आसक्त है वह क्यों चारित्र धारण करेगा। अतः बाह्य तप प्रारम्भिक रित्रका परिकर होता है। क्योंकि बाह्य तपसे सब सखशीलता छट जाती है तथा पाँच प्रकारकी स्वाध्याय श्रुतभावना है, जो स्वाध्याय करता है वह चारित्ररूप परिणमता है। कहा है-श्रुत भावनासे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तप और संयमरूप परिणमन करता है । परिणामको ही उपयोग कहते हैं। अतः सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी आराधनाके साथ जो चारित्रमें उद्योग करता है और उपयोग लगाता है यद्यपि ऐसा वह मोक्षके लिए ही करता है फिर भी शुभराग होनेसे किंचित् पुण्यबन्ध भी होता है, उस पुण्यबन्धसे उसे सांसारिक सुख भी प्राप्त होता है। प्रवचनसारमें कहा है-दर्शनज्ञान प्रधान वीतराग चारित्रसे मोक्ष होता है और सराग चारित्रसे देवराज, असुरराज और चक्रवर्तीका वैभव प्राप्त करानेवाला बन्ध होता है। अर्थात् मुमुक्षुको नहीं चाहते हुए भी मोक्षलक्ष्मीसे पहले संसारलक्ष्मी प्राप्त होती है। इसपर ग्रन्थकार कहते हैं कि स्त्रियोंमें ईर्ष्या होती ही है। अतः उक्त पुरुषपर मुक्तिलक्ष्मीकी केवल दृष्टि पड़ते ही संसारलक्ष्मी ईर्ष्यावश कि इसे मुक्ति लक्ष्मी वरण न कर सके उसके पास आ जाती है। यदि वह पुरुष उसी संसारलक्ष्मीमें आसक्त हो जाता है तो मुक्तिलक्ष्मी उससे दूर हो जाती है और यदि उपेक्षा करता है तो मुक्तिलक्ष्मी निकट आ जाती है ।।१७८।। ___ इसी भरत क्षेत्रमें जो पूर्वमें सम्यक् चारित्रकी आराधनाके बलसे मोक्षपद प्राप्त कर चुके हैं उनसे अपने सांसारिक दुःखोंके विनााकी याचना करते हैं१. 'सुदभावणाए णाणं दंसण तव संजमं च परिणमदि' । -भ. आ. १९४ गा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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