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________________ २७५ चतुर्थ अध्याय वृष्यभोगोपयोगाभ्यां कुशीलोपासनादपि । पुंवेदोदीरणात् स्वस्थः कः स्यान्मैथुनसंज्ञया ॥६४॥ वृष्येत्यादि-वृष्यानां कामवर्द्धनोद्दीपनानां क्षीरशर्करादीनां भोजनेन रम्योद्यानादीनां च सेवनेन । ३ पुंवेदोदीरणात्-पुंसो वेदो योन्यादिरिरंसा संमोहोत्पादनिमित्तं चारित्रमोहकर्मविशेषः तस्य उदीरणादुद्भवादन्तरङ्गनिमित्तादुद्भूतया मैथुनसंज्ञया-मैथुने रते संज्ञा वाञ्छा तया । तस्याश्चाहारादिसंज्ञावत्तीव्रदुःखहेतुत्वमनुभवसिद्धमागमसिद्धं च। तथा ह्यागमः 'इह जाहि बाहिया वि जीवा पावंति दारुणं दुक्खम् । सेवंता वि य उभए ताओ चत्तारि सण्णाओ॥ [ गो. जी. १३४ ] कामका वर्धन और उद्दीपन करनेवाले पदार्थों के भोगसे और उपयोगसे, तथा कुशील पुरुषोंकी संगतिसे और पुरुषवेदकी उदीरणासे होनेवाली मैथुन संज्ञासे कौन मनुष्य सुखी हो सकता है ? ॥६४॥ विशेषार्थ-चारित्र मोहनीयका उदय होनेपर रागविशेषसे आविष्ट स्त्री और पुरुषोंमें जो परस्परमें आलिंगन आदि करनेकी इच्छा होती है उसे मैथुन संज्ञा कहते हैं । स्त्री स्त्रीके साथ और पुरुष पुरुषके साथ या अकेला पुरुष और अकेली स्त्री मैथुनके अभिप्रायसे जो हस्त आदिके द्वारा अपने गुप्त अंगका सम्मर्दन करते हैं वह भी मैथुनमें ही गर्भित है । मैथुनके लिए जो कुछ चेष्टाएँ की जाती हैं उसे लोकमें सम्भोग शृंगार कहते हैं। कहा है'हर्षातिरेकसे युक्त सहृदय दो नायक परस्परमें जो-जो दर्शन और सम्भाषण करते हैं वह सब सम्भोग श्रृंगार है। _इस मैथुन संज्ञाके बाह्य निमित्त हैं दूध आदि वृष्य पदार्थोंका भोजन और रमणीक वनोंमें विहार तथा स्त्री आदिके व्यसनोंमें आसक्त पुरुषोंकी संगति । और अन्तरंग निमित्त है पुरुषवेदकी उदीरणा । पुरुषवेदका मतलब है योनि आदिमें रमण करनेकी इच्छा । पुरुषवेद कर्म चारित्र मोहनीय कर्मका भेद है। यहाँ पुंवेदका ग्रहण इसलिए किया है कि चूंकि पुरुष ही मोक्षका अधिकारी होता है इसलिए उसकी मख्यता है। वैसे वेद मात्रका ग्रहण अभीष्ट है। अतः स्त्रीवेद और नपुंसकवेद भी लेना चाहिए। कोमलता, अस्पष्टता, बहुकामावेश, नेत्रों में चंचलता, पुरुषकी कामना आदि स्त्रीभाववेदके चिह्न हैं। इससे विपरीत पुरुषभाववेद है। और दोनोंका मिला हुआ भाव नपुंसकभाववेद है। भाववेदकी उदीरणा मैथुन संज्ञाका अन्तरंग कारण है। आगम में कहा है-'कामोद्दीपक पदार्थोंका भोजन करनेसे, कामोद्दीपक बातोंमें उपयोग लगानेसे, कुशील पुरुषोंकी संगतिसे और वेदकर्मकी उदीरणासे इन चार कारणोंसे मैथुन संज्ञा होती है ।' लोगोंके मनमें यह भ्रान्त धारणा है कि मैथुन संज्ञामें सुख है । संज्ञा मात्र दुःखका कारण है । कहा है-'इस लोकमें जिनसे पीड़ित होकर भी तथा सेवन करते हुए भी जीव भयानक दुःख पाते हैं वे संज्ञाएँ चार हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ।' १. 'अन्योन्यस्य सचित्तावनुभवतो नायको यदिदमुदी। आलोकनवचनादिः स सर्वः संभोगशृङ्गारः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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