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________________ २७४ धर्मामृत (अनगार) अथ विषयवर्गस्य मनोविकारकारित्वं मुनीनामपि दुरिमिति परं तत्परिहारे विनेयं सज्जयति यद्वय घुणवद् वज्रमोष्टे न विषयवजः । मुनीनामपि दुष्प्रापं तन्मनस्तत्तमुत्सृज ॥६२॥ वार्धं ( व्यर्बु)-वो(-वे-)धितुं विकारयितुमित्यर्थः ॥६२॥ अथ स्त्रीवैराग्यपञ्चकभावनया प्राप्तस्त्रीवैराग्यो ब्रह्मचर्य वर्द्धस्वेति शिक्षयति नित्यं कामाङ्गनासङ्गदोषाशौचानि भावयन् । कृतार्यसङ्गतिः स्त्रीषु विरक्तो ब्रह्म बृहय ॥६३॥ सङ्गः-संसर्गः । प्रत्यासत्तेरङ्गनाया एव । अथवा कामाङ्गनाङ्गसङ्गेति पाठ्यम् । स्त्रीषु-मानुषी९ तिरश्चीदेवीषु तत्प्ररूपकेषु च । विरक्तः–संसर्गादेनिवृत्तः । तदुक्तम् 'मातृस्वसृसुतातुल्यं दृष्ट्वा स्त्रीत्रिकरूपकम् । स्त्रीकथादिनिवृत्तिर्या ब्रह्म स्यात्तन्मतं सताम् ॥' [ ] ॥६३॥ अथ अष्टाभिः पद्यः कामदोषान् व्याचिख्यासुः प्रथमं तावद्योन्यादिरिरंसायाः प्रवृत्तिनिमित्तकथनपुरस्सरं तीव्रदुःखकरत्वं वक्रभणित्या प्रकाशयति विषय मनमें विकार पैदा करते हैं जो मुनियों के द्वारा भी दुर्निवार होता है । इसलिए अभ्यासियोंको उनका त्याग करनेकी प्रेरणा करते हैं जैसे घुन वज्रको नहीं छेद सकता, उसी तरह इन्द्रियोंके विषयोंका समूह जिस मनको विकारयुक्त नहीं करता वह मन मुनियों को भी दुर्लभ है अर्थात् विषय मुनियोंके मनमें भी विकार पैदा कर देते हैं । इसलिए तू उन विषयोंको त्याग दे ॥६२॥ आगे स्त्रियोंसे वैराग्य उत्पन्न करनेवाली पाँच भावनाओं के द्वारा स्त्रीसे विरक्त होकर ब्रह्मचर्यको बढ़ानेकी शिक्षा देते हैं हे साधु ! काम, स्त्री और स्त्री-संसर्गके दोष तथा अशौचका निरन्तर विचार करते हुए ज्ञानवृद्ध तपस्वी जनोंके साहचर्यमें रहकर तथा स्त्री-विषयक अभिलाषाको दूर करके ब्रह्मचर्य व्रतको उन्नत कर ॥६३।। विशेषार्थ-स्त्रीवैराग्यका मतलब है स्त्रियोंकी अभिलाषा न करना, उनसे रमण करनेकी इच्छाकी निवृत्ति । उसके बिना ब्रह्मचर्यका पालन नहीं किया जा सकता। तथा उसके लिए पाँच भावनाएँ आवश्यक हैं। काम-सेवन, स्त्री और स्त्रीसंसर्गके दोष तथा उनसे होनेवाली गन्दगीका सतत चिन्तन और ज्ञानी-विवेकी तपस्वीजनोंका सहवास । सत्संगतिमें बड़े गुण हैं । जैसे कुसंगतिमें दुर्गुण हैं वैसे ही सत्संगतिमें सद्गुण हैं। अतः ब्रह्मचर्यव्रतीको सदा ज्ञानी तपस्वियाका सहवास करना चाहिए तथा कामभोग, स्त्री-सहवास आदिके दोष, उनसे पैदा होनेवाली गन्दगीका सतत चिन्तन करते रहना चाहिए ॥६३॥ आगे ग्रन्थकार आठ पद्योंसे कामके दोषोंका कथन करना चाहते हैं। उनमें से सर्वप्रथम योनि आदिमें रमण करनेकी इच्छाके तथा उसमें प्रवृत्तिके निमित्तोंका कथनपूर्वक उसे वक्रोक्तिके द्वारा तीव्र दुःखदायक बतलाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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