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________________ २७६ धर्मामृत ( अनगार) अपि च 'परितप्यते विषीदति शोचति विलपति च खिद्यते कामी। नक्तं दिवं न निद्रां लभते ध्यायति, च विमनस्कः ॥' [ ] ॥६४! अथ बहिरात्मप्राणिगणस्य कामदुःखाभिभवदुनिवारतामनुशोचति संकल्पाण्डकजो द्विदोषरसनश्चिन्तारुषो गोचर च्छिद्रो दर्पबृहद्रदो रतिमुखो ह्रीकञ्चुकोन्मोचकः । कोऽप्युद्यद्दशवेगदुःखगरलः कन्दर्पसर्पः समं, हो दन्दष्टि हठद्विवेकगरुडक्रोडादपेतं जगत् ॥६५॥ संकल्पः-इष्टाङ्गनादर्शनात्तां प्रत्युत्कण्ठागर्भोऽध्यवसायः । द्विदोषं-रागद्वेषौ । चिन्ता-इष्टाङ्गनागुणसमर्थनतद्दोषपरिहरणार्थो विचारः। गोचराः-रूपादिविषयाः। बृहद्रदः-दंष्ट्रा सा चेह तालुगता। कोऽपि-अपूर्वः । सप्तवेगविषो हि शास्त्रे सर्पः प्रसिद्धः । यद्वाग्भट: कामी पुरुषोंकी दुर्दशाका वर्णन काव्य-साहित्य तकमें भी किया है । यथा-'कामी पुरुष परिताप करता है, खेद-खिन्न होता है, दुःखी होता है, शोक करता है, विलाप करता है। दिन-रात सोता नहीं है और विक्षिप्त चित्त होकर किसीके ध्यानमें मग्न रहता है।' एक कामी कहता है-'बड़ा खेद है कि मैंने सुखके लोभसे कामिनीके चक्करमें पड़कर उत्कण्ठा, सन्ताप, घबराहट, नींदका न आना, शरीरकी दुर्बलता ये फल पाया।' और भी कहा है-'स्त्रीके प्रेममें पड़े हुए मूढ मनुष्य खाना-पीना छोड़ देते हैं, लम्बीलम्बी साँसें लेते हैं, विरहकी आगसे जलते रहते हैं। मुनीन्द्रोंको जो सुख है वह उन्हें स्वप्नमें भी प्राप्त नहीं होता' ॥६४॥ दुर्निवार कामविकारके दुःखसे अभिभूत संसारके विषयों में आसक्त प्राणियों के प्रति शोक प्रकट करते हैं कामदेव एक अपूर्व सर्प है। यह संकल्परूपी अण्डेसे पैदा होता है । इसके रागद्वेषरूपी दो जिह्वाएँ हैं। अपनी प्रेमिका-विषयक चिन्ता ही उसका रोष है। रूपादि विषय ही उसके छिद्र हैं। जैसे साँप छिद्र पाकर उसमें घुस जाता है उसी तरह स्त्रीका सौन्दर्य आदि देखकर कामका प्रवेश होता है। वीर्यका उद्रेक उसकी बड़ी दाढ़ है जिससे वह काटता है। रति उसका मुख है। वह लज्जारूपी केंचलीको छोडता है। प्रतिक्षण बढते हए दस त वेग ही उसका दुःखदायी विष है। खेद है कि जाग्रत् विवेकरूपी गरुड़की गोदसे वंचित इस जगत्को वह कामरूपी सर्प बुरी तरह डंस रहा है ॥६५॥ विशेषार्थ-यहाँ कामदेवकी उपमा सर्पसे दी है। सर्प अण्डेसे पैदा होता है । कामदेव संकल्परूपी अण्डेसे पैदा होता है। किसी इच्छित सुन्दरीको देखकर उसके प्रति उत्कण्ठाको लिये हुए जो मनका भाव होता है उसे संकल्प कहते हैं। उसीसे कामभाव पैदा होता है । पञ्चतंत्र में कहा है १. 'सोयदि विलपदि परितप्पदी य कामादुरो विसीयदि य । रतिदिया य णि ण लहदि पज्झादि विमणो य॥' [भ. आ. ८८४ गा.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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