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________________ २७३ ३ चतुर्थ अध्याय अथ दशप्रकारब्रह्मसिद्धयर्थ दशविधाब्रह्मप्रतिषेधाय प्रयुङ्क्ते मा रूपादिरसं पिपास सुदृशां मा वस्तिमोक्ष कृथा, वृष्यं स्त्रीशयनादिकं च भज मा मा दा वराङ्गे दृशम् । मा स्त्रों सत्करु मा च संस्कर रतं वत्तं स्मर स्मार्य मा. वय॑न्मेच्छ जुषस्व मेष्टविषयान् द्विः पञ्चधा ब्रह्मणे ॥६१॥ पिपास-पातुमिच्छ त्वम् । वस्तिमोक्षं-लिङ्गविकारकरणम् । वृष्यं-शुक्रवृद्धिकरम् । स्त्रीशय- ६ नादिकंकामिन्यङ्गस्पर्शवत्तत्संसक्तशय्यासनादिस्पर्शस्यापि कामिनां प्रीत्युत्पत्तिनिमित्तत्वात् । मा दाःमा देहि, मा व्यापारयेत्मर्थः। वराङ्गे-भगे। सत्कुरु-सम्मानय । संस्कुरु-वस्त्रमाल्यादिभिरलंकुरु । बृत्तं-पूर्वानुभूतम् । स्मर स्म मा । तथा ताभिः सह मया क्रीडितमिति मा स्म चिन्तय इत्यर्थः । वय॑त्- ९ भविष्यत् ॥६॥ ब्रह्मचर्य के दस प्रकारोंकी सिद्धिके लिए दस प्रकारके अब्रह्मको त्यागनेकी प्रेरणा करते हैं हे आर्य ! दस प्रकारके ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करनेके लिए दस प्रकारके अब्रह्मका सेवन मत करो। प्रथम, कामिनियोंके रूपादि रसका पान करनेकी इच्छा मत करो। अर्थात् चक्षुसे उनके सौन्दर्यका, जिह्वासे उनके ओष्ठरसका, घ्राणेन्द्रियसे उनके उच्छ्वास आदिकी सुगन्धका, स्पर्शन इन्द्रियसे उनके अंगस्पर्शका और श्रोत्रसे गीत आदिके शब्दका परिभोग करनेकी अभिलाषा मत करो । दूसरे, अपने लिंगमें विकार उत्पन्न मत करो। तीसरे, वीय वृद्धिकारक दूध, उड़द आदिका सेवन मत करो । चौथे, स्त्री शय्या आदिका सेवन मत करो क्योंकि स्त्रीके अंगके स्पर्शकी तरह उससे संसक्त शय्या, आसन आदिका स्पर्श भी रागकी उत्पत्तिमें निमित्त होता है। पाँचवें, स्त्रीके गुप्तांगपर दृष्टि मत डाल। छठे, अनुरागवश नारीका सम्मान मत कर। सातवें, वस्त्र, माला आदिसे स्त्रीको सज्जित मत कर । आठवें, पहले भोगे हुए मैथुनका स्मरण मत कर। नौवें, आगामी भोगकी इच्छा मत कर कि मैं देवांगनाओंके साथ अमुक-अमुक प्रकारसे मैथुन करूँगा। दसवें, इष्ट विषयोंका सेवन मत कर ॥६१॥ विशेषार्थ-भगवती 'आराधनामें [गा. ८७९-८०] अब्रह्मके दस प्रकार कहे हैं'स्त्री सम्बन्धी विषयोंकी अभिलाषा, लिंगके विकारको न रोकना, वीर्यवृद्धिकारक आहार और रसका सेवन करना, स्त्रीसे संसक्त शय्या आदिका सेवन करना, उनके गुप्तांगको ताकना, अनुरागवश उनका सम्मान करना, वस्त्रादिसे उन्हें सजाना, अतीत कालमें की गयी रतिका स्मरण, आगामी रतिकी अभिलाषा और इष्ट विषयोंका सेवन, ये दस प्रकारका अब्रह्म हैं । इनसे निवृत्त होना दस प्रकारका ब्रह्मचर्य है' ॥६१॥ १. 'इच्छिविषयाभिलासो वच्छिविमोक्खो य पणिदरससेवा। संसत्तदव्वसेवा तदिदिया लोयणं चेव ।। सक्कारो संकारो अदीदसुमिरणमणागदभिलासे । इटुविषयसेवा वि य अव्वंभं दसविहं एदं' ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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