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________________ २७२ धर्मामृत ( अनगार) प्रादुःषन्ति यतः फलन्ति च गुणाः सर्वेऽप्यखरूजसो, - यत्प्रह्वीकुरुते चकास्ति च यतस्तद्ब्रह्ममुच्चैर्महः । त्यक्त्वा स्त्रीविषयस्पृहादि दशधाऽब्रह्मामलं पालय. स्त्रीवैराग्यनिमित्तपञ्चकपरस्तद्ब्रह्मचर्य सदा ॥५९॥ प्रादुःषन्ति-दुःखेन प्रस्रवन्ति । गुणाः-व्रतशीलादयः । अप्यखझेजसः-अखर्वमुन्नतमुदितोदित६ मोजस्तेज उत्साहो वा येषां ते तानिन्द्रादीनपीत्यर्थः । ब्राह्म--सार्वज्ञम् । स्त्रीविषयाः-स्त्रीगता रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाः। (अब्रह्म-बृहं )न्त्यहिंसादीन्यस्मिन्निति ब्रह्म-शुद्धस्वात्मानुभूतिपरिणतिस्ततोऽन्यत् ॥५९॥ अथ ब्रह्मचर्यस्वरूपं निरूप्य तत्पालनपराणां परमानन्दप्रतिलम्भमभिधते या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः । तब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥६०॥ स्पष्टम् । उक्तं च निरस्तान्याङ्गरागस्य स्वदेहेऽपि विरागिणः । जीवे ब्रह्मणि या चर्या ब्रह्मचर्यं तदीर्यते ॥ [ अमित. भ. आरा. पृ. ९९० । ] ॥६०॥ हे मुमुक्ष! स्त्री-विषयक अभिलाषा आदि दस प्रकारके अब्रह्म अर्थात मैथुनको त्यागकर तथा स्त्रीमें वैराग्यके पाँच निमित्त कारणोंमें तत्पर होकर सदा निर्मल उस ब्रह्मचर्यका पालन कर, जिस ब्रह्मचर्यके प्रभावसे सभी गुण उत्पन्न होते हैं और फलते हैं, अत्यन्त प्रतापशाली इन्द्रादि भी नम्रीभूत हो जाते हैं तथा जिससे प्रसिद्ध उच्च ब्राह्म तेज प्रकाशित होता है। अर्थात् श्रुतकेवलीपना और केवलज्ञानीपना प्राप्त होता है ॥५९॥ __ ब्रह्मचर्यका स्वरूप बतलाकर उसके पालनमें तत्पर पुरुषोंको परमानन्दकी प्राप्ति बतलाते हैं - ___ ब्रह्म अर्थात् अपनी शुद्ध-बुद्ध आत्मामें, चर्या अर्थात् शरीर आदि परद्रव्यका त्याग करनेवाले साधुकी बाधारहित परिणतिको ब्रह्मचर्य कहते हैं। समस्त भूमिके स्वामी चक्रवर्तीको सार्वभौम कहते हैं। ब्रह्मचर्य भी व्रतोंका सार्वभौम है। इसे जो निरतिचार पालते हैं वे परमानन्दको प्राप्त करते हैं ॥६॥ विशेषार्थ-निरुक्तिकारोंने ब्रह्मचर्यकी निरुक्ति 'ब्रह्मणि चर्या' की है। ब्रह्मका अर्थ है अपनी शुद्ध-बुद्ध आत्मा । देखे गये, सुने गये, भोगे गये समस्त प्रकारके भोगोंकी चाहरूप निदानसे होनेवाले बन्ध आदि समस्त विभाव तथा रागादि मलसे निर्मुक्त होनेसे आत्मा शुद्ध है। और एक साथ समस्त पदार्थों का साक्षात्कार करने में समर्थ होनेसे बुद्ध है। ऐसी आत्मामें अपने और पराये शरीरसे ममत्वको त्याग कर जो प्रवृत्ति की जाती है उसीमें लीन होना है वही ब्रह्मचर्य है। कहा भी है-'पराये शरीरके प्रति अनुरागको दूर करके अपने शरीरसे भी विरक्त जीवकी ब्रह्म में चर्याको ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसी ब्रह्मचर्यका व्यावहारिक रूप स्त्री-वैराग्य है। स्त्रीसे मानुषी, तिरश्ची, देवी और उनकी प्रतिमा सभी लिये गये हैं। वैराग्यसे मतलब है स्त्रीसे रमण करनेकी इच्छाका निग्रह । जबतक यह नहीं होता तबतक ब्रह्मचर्यका पालन सम्भव नहीं है । इसीसे ब्रह्मचर्यको सब व्रतोंका स्वामी कहा है। इससे कठिन दूसरा व्रत नहीं है। और इसके बिना समस्त त्याग, यम, नियम व्यर्थे है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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