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________________ चतुर्थ अध्याय २७१ अथास्तेयव्रतदृढिमदूराधिरूढप्रौढमहिम्नां परमपदप्राप्तिमाशंसतिते संतोषरसायनव्यसनिनो जीवन्तु यः शुद्धिचि मात्रोन्मेषपराङ्मुखाखिलजगद्दौर्जन्यगर्जद्भुजम् । जित्वा लोभमनल्पकिल्विषविषस्रोतः परस्वं शकुन् __ मन्वानैः स्वमहत्त्वलुप्तखमदं दासीक्रियन्ते श्रियः ॥५८॥ जीवन्तु-शुद्धचैतन्यदृग्बोधादिभावप्राणैः प्राणन्तु । खमदः-आकाशदर्पः । परधननिरीहा आकाशा- ६ दपि (-महान्तः इति भावः-) ॥५८॥ अथ पञ्चचत्वारिंशत्पर्धेब्रह्मचर्यव्रतं व्याचिकीर्षुस्तन्माहात्म्यमुपदर्य रोचनमुत्पाद्य तत्परिपालनाय मुमुक्षु नित्यमुद्यमयति । आगे कहते हैं कि दृढ़तापूर्वक अचौर्य व्रतका अच्छी तरह पालन करनेवाले प्रौढ़ महिमाशाली साधुओंको परमपदकी प्राप्ति होती है यह समस्त जगत् शुद्ध चिन्मात्र अर्थात् समस्त विकल्पोंसे अतीत अविचल चैतन्यके साक्षात्कारमें उपयोग लगानेसे विमुख हो रहा है। इस अपकारके अहंकारसे गर्वित होकर लोभ अपनी भुजाएँ ठोककर अट्टहास करता है। ऐसे तीनों लोकोंको जीतनेवाले उस लोभको भी जीतकर जो पराये धनको विष्टाके तुल्य और महापापरूपी विषका स्रोत मानते हैं और अपनी महत्तासे आकाशके भी मदको छिन्न-भिन्न करके लक्ष्मीको अपनी दासी बना लेते हैं वे सन्तोषरूपी रसायनके व्यसनी साधु सदा जीवित रहे अर्थात् दया, इन्द्रिय-संयम और त्यागरूप भावप्राणोंको धारण करें ॥५८।। विशेषार्थ-संसारके प्रायः समस्त प्राणी जो अपने स्वरूपको भूले हुए हैं और अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूपसे विमुख हो रहे हैं इसका मूल कारण है लोभ । इसीसे लोभको पापका बाप कहा है। उस लोभको जीतकर पराये धनसे जो निरीह रहते हैं वे आकाशसे भी महान् हैं। उन्हें जो कुछ उचित रीतिसे प्राप्त होता है उसीमें सन्तोष करते हैं। यह सन्तोष रसायनके तुल्य है। जैसे रसायनके सेवनसे दीघं आयु, आरोग्य आदि प्राप्त होते हैं उसी सन्तोष आत्माके आरोग्यके लिए रसायन है । सन्तोषके बिना लोभको नहीं जीता जा सकता और लोभको जीते बिना अचौर्यव्रतका पूर्णतासे पालन नहीं किया जा सकता। मनमें छिपा हुआ असन्तोष लोभवृत्तिको जगाकर पराये धनके प्रति लालसा पैदा करता है। यह पराये धनकी लालसा ही चोरीके लिए प्रेरित करती है। चोरीसे मतलब केवल डाकेजनी या किसीके घरमें घुसकर माल निकालनेसे ही नहीं है। यह सब न करके भी जगत्में चोरी चलती है। अनुचित रीतिसे परधन ग्रहणकी भावनामात्र चोरी है। परधनके प्रति निरीह हुए बिना मनुष्य चोरीसे नहीं बच सकता और लोभको जीते बिना परधनके प्रति निरीह नहीं हो सकता। इस प्रकार अचौर्यव्रतका वर्णन जानना ॥५८॥ ___ आगे ग्रन्थकार पैंतालीस पद्योंसे ब्रह्मचर्यव्रतका व्याख्यान करनेकी इच्छासे सर्वप्रथम ब्रह्मचर्यके माहात्म्य-वर्णनके द्वारा रुचि उत्पन्न करके मुमुक्षुओंको उसका सदा पालन करनेके लिए प्रेरित करते हैं सी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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