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________________ २३२ धर्मामृत (अनगार) मूलोत्थादयोऽनन्तकायाः प्रत्येककायाश्च भवन्ति । तथा सम्मूछिमा अपीति योज्यम् । त्वगित्यादि सम्मछिमवनस्पतिजातिस्वरूपप्रतिपादनार्थमिदमुभयावयवख्यापनार्थ वा। त्वक् छल्ली। प्रसवः पुष्पम् । गुच्छः एककालीनबहुसमूहो जातिमल्लिकादिः । गुल्मः कंथारिकाकरमर्दिकादिसंघातः । किं च पुष्पमन्तरेण यस्योत्पत्तिः फलानां स फल इत्युच्यते । यस्य पुष्पाण्येव भवन्ति न फलानि स पुष्प इत्युच्यते । यस्य पत्राण्येव भवन्ति न पुष्पाणि न फलानि स पत्र इत्युच्यते इत्यादि बोध्यम् । शैवलमुदकगतकायिका हरितवर्णा । पिणक: सार्टेष्टका भूमिकुड्योद्भवकालिका पञ्चवर्णोल्लिरित्यन्ये । किण्वं वर्षाकालोद्भवछत्राणि । कवकः शृङ्गोद्भवाङ्कराः जटाकाराः। कुहणः आहारकंजिकादिगतपुष्पिका । बादरा स्थलाः पृथिवीकायिकादयः पञ्चाप्यते पूर्वोक्ताः । सूक्ष्मकायाः सर्वेऽपि पृथिव्यादिभेदा वनस्पतिभेदाश्चाङ्गलासंख्यातभागशरीराः । गूढानि अदृश्यमानानि । समभङ्गं त्वचारहितम् । अहीरुहं सूत्राकारादिजितं मंजिष्ठादिकम । च्छिन्नोद्भवं छिन्नेन छेदेनोद्भवति रोहति । उपलक्षणाद् भिन्नरोहि च । सामान्यं साधारणम् । मूले कंदे छल्ली पवालसालदलकुसुमफलवीए। समभंगे सदि णंता असमे सदि हंति पत्तेया॥ कंदस्स व मूलस्स व सालाखंधस्स वापि बहुलतरी। छल्ली साणंतजिया पत्तेयजिया दु तणुकदरी॥ [ गो. जी. १८८-१८९ ] __ वल्लीत्यादि । प्रत्येकशरोरं किंभूतमिति पृष्टे सत्युत्तरमिदम्-वृक्षाः पुष्पफलोपमाः वनस्पतिः फलवान् । हरिताङ्गिनः प्रत्येकाङ्गाः साधारणाङ्गाः सर्वेऽपि हरितकाया इत्यर्थः । जीवत्वं चैषामागमतः सर्वत्वगपहरणे मरणादाहारादिसंज्ञास्तित्वाच्च निश्चेयम् । ते हयुदकादिना शाला भवन्ति । स्पृष्टाश्च लज्जिकादयः संकुचन्ति । वनितागण्डूषादिना बकुलादयो हर्षविकासादिकं कुर्वन्ति । निधानादिशि पादादिकं प्रसारयन्तीति क्रमेणाहार-भय-मैथुन-परिग्रहसंज्ञावन्तः किल वृक्षाः स्युः । निगोतलक्षणं यथा 'साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च। साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ जत्थेक्कु मरदि जीवो तत्थदु मरणं भवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥' [ गो. जी. १९२-१९३ ] सिद्ध है कि इन सबमें जीव होता है तथा यदि पूरी छाल उतार ली जाये तो इनका मरण भी देखा जाता है। इनमें आहार आदि संज्ञा भी पायी जाती है । इससे इनमें जीवत्वका निश्चय होता है। पानी देने पर हरे-भरे हो जाते हैं। लाजवन्तीको छूने पर वह संकुचित हो जाती है । स्त्रीके कुल्लेके पानीसे वकुल आदि विकसित होते हैं। जिस दिशामें धन गड़ा होता है वृक्षकी जड़ें उधर फैलती हैं। इस प्रकार वृक्षोंमें क्रमसे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा होती हैं जो संसारी जीवके चिह्न हैं । निगोद जीवका लक्षण गोम्मटसारमें कहा है । उसका व्याख्यान संस्कृत टीका गोम्मटसारके अनुसार किया जाता है-जिन जीवोंके साधारण नामकर्मका उदय होता है वे साधारण जीव होते हैं। उन जीवोंकी आहारादि पर्याप्ति एक साथ एक ही कालमें होती है। वे सब एक ही साथ श्वास लेते हैं। एक निगोद शरीरमें अनन्त जीवोंका आवास रहता है । प्रति समय अनन्तजीव उत्पन्न होते रहते हैं। पहलेके जीवोंके समान ही दूसरे-तीसरे आदि समयोंमें उत्पन्न हुए अनन्तानन्त जीवोंकी आहारादि पर्याप्ति एक साथ एक कालमें होती है। इस तरह पूर्वाचार्योंने यह साधारण जीवोंका लक्षण कहा है। एक निगोद शरीरमें जब एक जीव अपनी आयु पूरी होनेसे मरता है उसी समय उस शरीरमें रहनेवाले अनन्तानन्त जीव अपनी आयु पूरी होनेसे मरते हैं। जिस निगोद शरीरमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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