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________________ २३३ चतुर्थ अध्याय 'एक्काणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा । सिद्धे हिं अणंतगुणा सव्वेण वितोदकालेण ॥' [गो. जी. १९६ ] ते च नित्येतरभेदाद् द्विधा । तद्यथा 'त्रसत्वं ये प्रपद्यन्ते कालानां त्रितयेऽपि नो। ज्ञेया नित्यनिगोतास्ते भूरिपापवशीकृताः ।। कालत्रयेऽपि यै वैस्त्रसता प्रतिपद्यते । सन्त्यनित्यनिगोदास्ते चतुर्गतिविहारिणः ॥' [ अमि. पं. सं. ११११०-१११ ] जब एक जीव उत्पन्न होता है तब उसी निगोद शरीर में समान स्थितिवाले अनन्तानन्त जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार जन्म-मरणका समकालमें होना भी साधारणका लक्षण है। दूसरे आदि समयोंमें उत्पन्न अनन्तानन्त जीव भी अपनी स्थितिका क्षय होनेपर साथ ही मरते हैं। इस प्रकार एक निगोद शरीरमें प्रति समय अनन्तानन्त जीव एक साथ ही मरते हैं, एक साथ ही उत्पन्न होते है। निगोद शरीर ज्योंका त्यों रहता है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोटाकोटी सागर मात्र है। जबतक यह स्थिति पूरी नहीं होती तबतक जीवोंका उत्पाद और मरण होता रहता है। इतना विशेष वक्तव्य है कि एक बादर निगोद या सूक्ष्म निगोद शरीरमें या तो सब पर्याप्तक ही जीव उत्पन्न होते हैं या सब अपर्याप्तक ही जीव उत्पन्न होते हैं। एक ही शरीरमें पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों उत्पन्न नहीं होते; क्योंकि उनके समान कर्मके उदयका नियम है। एक निगोद शरीरमें वर्तमान जीव द्रव्यप्रमाणसे सिद्धजीवोंसे अनन्तगुने और समस्त अतीत कालसे भी अनन्तगुने देखे गये हैं। वे दो प्रकारके हैं-नित्यनिगोद और इतर निगोद । सिद्धान्तमें नित्यनिगोदका लक्षण इस प्रकार कहा है-अनादि संसारमें ऐसे अनन्तजीव हैं जिन्होंने त्रस पर्याय कभी भी प्राप्त नहीं की। उनके भाव अर्थात् निगोदपर्याय, उसके कारणभूत कलंक अर्थात् कषायोंके उदयसे होनेवाले संक्लेशसे प्रचुर होते हैं। इस प्रकारके नित्य निगोदिया जीव निगोद सम्बन्धी भवस्थितिको कभी नहीं छोड़ते। इस कारणसे निगोदभव आदि और अन्तसे रहित है। नित्य विशेषगसे चतुर्गतिनिगोदरूप अनित्य निगोदवाले भी जीव हैं ऐसा सूचित होता है। परमागममें दोनों प्रकारके निगोद जीव कहे हैं। अर्थात् जो अनादिसे निगोदपर्यायको धारण किये हुए हैं वे नित्यनिगोद जीव हैं। और जो बीच में अन्य पर्याय धारण करके निगोद पर्याय धारण करते हैं वे अनित्यनिगोद या इतर निगोद जीव हैं। वे सादिसान्त हैं। गाथामें कहा है कि जिनके प्रचुर भाव कलंक हे वे निगोदवासको नहीं छोड़ते। यहाँ प्रचुर शब्द एक देशका अभावरूप है तथा सकल अर्थका वाचक है। इसपरसे ऐसा अर्थ जानना कि जिनके भावकलंक प्रचुर नहीं होता वे जीव नित्यनिगोदसे निकलकर चतुर्गतिमें आते हैं। अतः आठ समय अधिक छह मासके अन्दर चतुर्गतिरूप जीव राशिसे निकलकर छह सौ आठ जीवोंके मुक्ति चले जानेपर उतने ही जीव नित्यनिगोदको छोड़कर चतुर्गतिमें आते हैं। गोमट्टसारकी संस्कृत टीकामें ऐसा व्याख्यान किया है। उक्त गाथा प्राकृत पंचसंग्रहके जीव समासाधिकारमें भी है। आचार्य अमितगतिने उसके आधारपर रचित अपने संस्कृत पंचसंग्रहमें लिखा है-जो तीनों कालोंमें त्रसपर्यायको प्राप्त नहीं करते वे बहुपापी जीव नित्यनिगोद जानने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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