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________________ २२० धर्मामृत ( अनगार ) तपस्यतु चिरं तीवं व्रतयत्वतियच्छतु । निर्दयस्तत्फलैर्दीनः पीनश्चैकां दयां चरन् ॥८॥ तीवं व्रतयतु-अत्यर्थ नियमं करोतु । दोनः-दरिद्रः ॥८॥ अथ दयानृशंसयोः सिद्धयर्थं क्लेशादेर्नेष्फल्यमभिलपति मनो दयानुविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये। मनो दयापविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये ॥९॥ क्लिश्नासि-अनशनादिना आत्मनः क्लेशं करोषि । दयापविद्धं-कृपायुक्तम् ॥९॥ अथ विश्वासत्रासयोः सकृपत्वनिष्कृपत्वमूलत्वमुपलक्षयति-- विश्वसन्ति रिपवोऽपि दयालोवित्रसन्ति सुहृदोऽप्यदयाच्च । प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनपोऽपि ॥१०॥ रिपवः-अपकतारः। सुहृदः-उपकर्तारः। स्तनपः-अविज्ञातव्यवहारो डिम्भः ॥१०॥ अथ दयार्द्रस्यारोपितदोषो न दोषाय किं तर्हि बहुगुणः स्यादित्याह क्षिप्तोऽपि केनचिद् दोषो क्यानै न प्ररोहति । तक्रार्दै तृणवत् किंतु गुणग्रामाय कल्पते ॥११।। १५ केनचित्-असहिष्णुना । दोषः-प्राणिवध-पैशुन्य-चौर्यादिः । न प्ररोहति-अकीर्ति-दुर्गत्यादिप्रदो न भवतीत्यर्थः । पक्षे प्रादुर्भवति (?) तक्राद्रे मथिताप्लुते प्रदेशे । यच्चिकित्सा 'न विरोहन्ति गुदजाः पुनस्तक्रसमाहताः। . निषिक्तं तद्धि दहति भूमावपि तृणोलुपम् ॥ [ ] ॥११॥ निर्दय मनुष्य चिरकाल तक तपस्या करे, खूब व्रत करे, दान देवे किन्तु उस तप, व्रत और दानके फलसे वह दरिद्र ही रहता है उसे उनका किंचित् भी फल प्राप्त नहीं होता। और केवल एक दयाको पालनेवाला उसके फलसे पुष्ट होता है ॥८॥ आगे कहते हैं कि दयालु और निर्दय व्यक्तियोंका मुक्तिके लिए कष्ट उठाना व्यर्थ है हे मोक्षके इच्छुक ! यदि तेरा मन दयासे भरा है तो तू उपवास आदिके द्वारा व्यर्थ ही कष्ट उठाता है। तुझे दयाभावसे ही सिद्धि मिल जायेगी। यदि तेरा मन दयासे शन्य है तो तू मुक्तिके लिए व्यर्थ ही क्लेश उठाता है क्योंकि कोरे कायक्लेशसे मुक्ति नहीं मिलती ॥९॥ आगे कहते हैं कि विश्वासका मूल दया है और भयका मूल अदया है दयालका शत्र भी विश्वास करते हैं और दयाहीनसे मित्र भी डरते हैं। ठीक ही है दूध पीता शिशु भी, जहाँ प्राण जानेका सन्देह होता है ऐसे स्थानसे बचकर ही इष्ट वस्तुको प्राप्त करना चाहता है ।।१०।। आगे कहते हैं कि दयालुको झूठा दोष लगानेसे भी उसका अपकार नहीं होता, किन्तु उलटा बहुत अधिक उपकार ही होता है जैसे मठासे सींचे गये प्रदेश में घास नहीं उगती वैसे ही दयालु पुरुषपर किसी असहिष्णु व्यक्तिके द्वारा लगाया गया हिंसा, चोरी आदिका दोष न उसकी अपकीर्तिका कारण होता है और न दुर्गतिका, बल्कि उल्टे गुणोंको ही लाने में कारण होता है ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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