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________________ २१९ चतुर्थ अध्याय अथ सम्यग्ज्ञानपूर्वके चारित्रे यत्नवतो जगद्विजयं कथयति देहेष्वात्ममतिर्दुःखमात्मन्यात्ममतिः सुखम् । इति नित्यं विनिश्चिन्वन् यतमानो जगज्जयेत् ॥५॥ देहेषु स्वगतेष्वौदारिकादिषु त्रिषु चतुर्पु वा परगतेषु तु यथासंभवम् । आत्ममतिः-आत्मेति मननं देह एवाहमिति कल्पनेति यावत् । यतमानः-परद्रव्यनिवृत्ति-शुद्धस्वात्मानुवृत्तिलक्षणं यत्नं कुर्वन् । जगज्जयेत्-सर्वज्ञो भवेदित्यर्थः ॥५॥ अथ दयेति सफलयितुमाह यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः। न हि भूतगृहां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ॥६॥ कुतः ? दयामूलत्वाद् धर्मस्य । यदार्षम्-- 'दयामूलो भवेद् धर्मो दया प्राणानुकम्पनम् । दयायाः परिरक्षार्थ गुणाः शेषाः प्रकीर्तिताः॥ [ महापु. ५।२१ ] भूतद्रुहां-जन्तून् हन्तुमिच्छूनाम् । कापि-स्नानदेवार्चनदानाध्ययनादिका ॥६॥ अथ सदयनिर्दययोरन्तरमाविष्करोति दयालोरव्रतस्यापि स्वर्गतिः स्याददुर्गतिः। वतिनोऽपि वयोनस्य दुर्गतिः स्याददुर्गतिः ॥७॥ अदुर्गतिः । सुगमा ॥७॥ अथ निर्दयस्य तपश्चरणादिनैष्फल्यकथनपुरस्सरं दयालोस्तदकर्तृत्वेऽपि तत्फलपुष्टिलाभं प्रकाशयति आगे कहते हैं कि सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्रमें प्रयत्नशील व्यक्ति जगत्को विजय करता है अपने या पराये औदारिक आदि शरीरों में आत्मबुद्धि-शरीर ही मैं हूँ या मैं ही शरीर हूँ इस प्रकारकी कल्पना दुःखका कारण है और आत्मामें आत्मबुद्धि-मैं ही मैं हूँ, अन्य ही अन्य है ऐसा विकल्प सुखका हेतु है, ऐसा सदा निश्चय करनेवाला मुमुक्षु परद्रव्यसे निवृत्तिरूप और स्वद्रव्य शुद्ध स्वात्मामें प्रवृत्तिरूप प्रयत्न करे तो जगत्को वशमें कर लेता है अर्थात् सर्वज्ञ हो जाता है क्योंकि सर्वज्ञका एक नाम लोकजित् भी है ।।५।। दयाको चारित्रका मूल बतलाते हैं जिसको प्राणियोंपर दया नहीं है उसके समीचीन चारित्र कैसे हो सकता है ? क्योंकि जीवोंको मारनेवालेकी देवपूजा, दान, स्वाध्याय आदि कोई भी क्रिया कल्याणकारी नहीं होती ॥६॥ दयालु और निर्दय व्यक्तियों में अन्तर बतलाते हैं व्रतरहित भी दयालु पुरुषको देवगति सुलभ होती है और दयासे रहित व्रती पुरुषको भी नरकगति सुलभ होती है ॥७॥ ___ आगे कहते हैं कि निर्दय पुरुषका तपश्चरण आदि निष्फल है और दयालुको तपश्चरण न करनेपर भी उसका फल प्राप्त होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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