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________________ चतुर्थ अध्याय तथा अथ निर्दयस्यान्यकृतोऽपि दोषः संपद्यत इत्याह अन्येनाऽपि कृतो दोषो निस्त्रिशमुपतिष्ठते । तटस्थमप्यरिष्टेन राहुमर्कोपरागवत् ॥१२॥ तटस्थं–निकटमुदासीनं वा। अरिष्टेन-आदित्यछादकग्रहविशेषेण । यथाह 'राहुस्स अरिढुस्स य किंचूणं जोयणं अधोगता। छम्मासे पव्वंते चंद रवि छादयंति कमा ॥' राहु अरिढविमाणद्धयादुवरि पमाणंगुलचउक्कं । गंतूण ससिविमाणा सूरविमाणा कमे हुंति ॥ [ त्रि. सा. ३३९-३४० ] राहं समानमण्डलवतित्वात्तटस्थम् ॥१२॥ अथ सकृदपि विराद्धो विराद्धारमसकृद्धिनस्तीति दृष्टान्तेन स्फुटयति विराधकं हन्त्यसकृद्विराद्धः सकृदप्यलम् । क्रोधसंस्कारतः पाश्र्वकमठोदाहृतिः स्फुटम् ॥१३॥ विराद्धः कृतापकारः ॥१३॥ विशेषार्थ-झूठा दोष लगाये जानेपर भी दयालु व्यक्ति शान्त रहता है उत्तेजित नहीं होता, इससे उसके अशुभ कर्मोकी निर्जरा होती है। साथ ही उसका रहस्य खुल जानेपर दयालु का सम्मान और भी बढ़ जाता है ॥११॥ किन्तु निर्दय मनुष्यको अन्यके द्वारा किया गया भी दोष लगता है अन्यके द्वारा किया गया दोष तटस्थ भी निर्दय व्यक्तिके सिर आ पड़ता है। जैसे अरिष्ट विमानके द्वारा किया जानेवाला सूर्यग्रहण राहुके सिर आ पड़ता है ॥१२॥ विशेषार्थ-आगम में कहा है-राहु और अरिष्टके विमान कुछ कम एक योजन व्यासवाले हैं। और वे चन्द्रमा और सूर्यके नीचे चलते हुए छह मास बीतनेपर पूर्णिमा और अमावस्याके दिन सूर्य और चन्द्रमाको ढाँक लेते हैं। राहु और अरिष्टके विमानकी ध्वजासे चार प्रमाणांगुल ऊपर जाकर क्रमसे चन्द्रमा और सूर्यके विमान हैं। इस तरह सूर्यग्रहण अरिष्ट ( केतु) के द्वारा किया जाता है किन्तु लोकमें राहुका नाम बदनाम होनेसे उसीके द्वारा किया गया कहा जाता है। इसी तरह दयारहित व्यक्ति तटस्थ भी हो फिर भी लोग उसे ही दोषी मानते हैं ॥१२॥ जिस जीवका कोई एक बार भी अपकार करता है वह जीव उस अपकार करनेवालेका बार-बार अपकार करता है यह दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं जिस जीवका एक बार भी अपकार किया जाता है वह जीव अनन्तानन्धी क्रोध कषायकी वासनाके वश होकर उस अपकार करनेवालेका बार-बार अपकार करता है यह बात भगवान् पाश्वनाथ और कमठके उदाहरणसे स्पष्ट है ॥१३॥ विशेषार्थ-पार्श्वनाथ भगवान्का जीव जब मरुभूतिकी पर्यायमें था तो कमठ सहोदर नाता था। कमठने मरुभूतिकी स्त्रीके साथ रमण किया। राजाने उसे देशनिकाला दे दिया। इसीसे कमठ मरुभूतिका बैरी बन गया और उसका यह बैर पार्श्वनाथके भव तक बराबर चलता रहा। इस प्रकार एक बार किये गये अपकारके बदलेमें कमठके जीवने बराबर ही मरुभूतिके जीवका अपकार किया। अतः किसीका एक बार भी अपकार नहीं करना चाहिए ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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