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________________ द्वितीय अध्याय १६७ रज्ज्वादिगा-अहिर्वा रज्जुर्वेति, स्थाणुर्वा पुरुषो वेत्यादिका। मोहोदयसंशयात्-दर्शनमोहोदयसंपादितसंदेहात् । तदरुचिः-प्रवचनाश्रद्धा । संशीतिदृक्-संशयमिथ्यात्वनामातिचारः स हि एकदेशभङ्गः ॥७१॥ अथ शङ्कानिराकरणे नियुङ्क्तेप्रोक्तं जिनैनं परथेत्युपयन्निदं स्यात् किंवान्यदित्थमथवाऽपरथेति शङ्काम् । स्वस्योपदेष्टुरुत कुण्ठतयानुषक्तां सद्युक्तितीर्थमचिरादवगाह्य मृज्यात् ॥७२॥ उपयन्-गृह्णन् । इदं-जिनोक्तं धर्मादितत्त्वं । अन्यत्-वैशेषिकोक्तं द्रव्यगुणादि, नैयायिकोक्तं प्रमाणप्रमेयादि, सांख्योक्तं प्रधानपुरुषादि, बौद्धोक्तं दुःखसमुदयादि । इत्थं-सामान्यविशेषात्मकत्वेन प्रकारेण । ९ अपरथा-भेदैकान्तादिप्रकारेण । कुण्ठतया-स्वस्य मतिमान्द्येन गुर्वादेर्वचनानयेन अनाचरणेन वा । सद्युक्तितोथं-युक्त्यागमकुशलमुपाध्यायं युक्त्यनुगृहीतमागमं वा, तयोरेव परमार्थतीर्थत्वात् । तदुक्तम् 'जिनश्रुततदाधारी तीर्थं द्वावेव तत्त्वतः। संसारस्तीर्यते ताभ्यां तत्सेवी तीर्थसेवकः ॥' [ ] अवगाह्य-अन्तःप्रविश्य । मृज्यात्-शोधयेत् ॥७२॥ विशेषार्थ-शंकाका अर्थ भी संशय है। यह साँप है या रस्सी है, दूंठ है या पुरुष है' इस प्रकारकी चलित प्रतीतिको संशय कहते हैं। इस प्रकारका संशय तो सम्यग्दृष्टिको भी होता है, कुछ अँधेरा होनेके कारण ठीक-ठीक दिखाई न देनेसे इस प्रकारका सन्देह होता है। यह सन्देह श्रद्धामूलक नहीं है अतः इससे सम्यग्दर्शन मलिन नहीं होता। दर्शन मोहके उदयके अभावमें सर्वज्ञोक्त तत्त्वोंकी श्रद्धा करते हए भी ज्ञानावरण कर्मके उदयसे जो सन्देहरूप प्रतीति होती है वह सन्देह शंका नामक अतीचार है। उससे सम्यग्दर्शन मलिन होता है। इसीसे यह कहा है कि अच्छे समझानेवालेके न होनेसे, अपनी बुद्धि मन्द होनेसे और पदार्थके सूक्ष्म होनेसे यदि कोई तत्त्व समझमें न आता हो तो उसमें सन्देह न करके सर्वज्ञ प्रणीत आगमको ही प्रमाण मानकर गहन पदाथेका श्रद्धान करना चाहिए। तो सम्यग्दर्शन अज्ञान मूलक प्रवचन विषयक शंकासे मलिन होता है। किन्तु यदि शंका अश्रद्धानमूलक हो, उसके मूलमें दर्शन मोहका उदय कारण हो तो उसे संशय मिथ्यात्व कहते हैं। संशय मिथ्यात्वके रहते हुए तो सम्यग्दर्शन हो नहीं सकता। वह अतीचार नहीं है। अतीचार तो एक देशका भंग होनेपर होता है ।।७१॥ इस शंका अतीचारके निराकरणकी प्रेरणा करते हैं वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा कहा गया 'सब अनेकान्तात्मक हैं' यह मत अन्यथा नहीं हो सकता, इस प्रकार श्रद्धा करते हुए, अपनी बुद्धि मन्द होनेसे अथवा गुरु आदिके नय प्रयोगमें कुशल न होनेसे, यह जिन भगवान्के द्वारा कहा गया धर्मादितत्त्व ठीक है या बौद्ध आदिके द्वारा कहा गया ठीक है, यह जिनोक्त तत्त्व इसी प्रकार है या अन्य प्रकार है, इस प्रकार हृदय में लगी हुई शंकाको युक्ति और आगम में कुशल गुरु या युक्तिसे समर्थित आगमरूपी तीर्थका तत्काल अवगाहन करके दूर करना चाहिए ॥७२॥ _ विशेषार्थ-लोकमें देखा जाता है कि लोग पैरमें कीचड़ लग जानेपर नदी आदिके घाट पर जाकर उसमें अवगाहन करके शद्धि कर लेते हैं। इसी तरह अपनी बद्धि मन्द होनेसे या समझानेवालेकी अकुशलताके कारण यदि हृदयमें यह शंका पैदा हो जाती है कि जिनोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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