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________________ १६८ धर्मामृत ( अनगार) अथ शङ्कामलादपायमाह सुरुचिः कृतनिश्चयोऽपि हन्तुं द्विषतः प्रत्ययमाश्रितः स्पृशन्तम् । उभयों जिनवाचि कोटिमाजौ तुरगं वीर इव प्रतीयते तैः ॥७३॥ सुरुचिः-सदृष्टिः सुदीप्तिश्च । कोटिं-वस्तुनो रणभूमेश्चांशम् । आजौ-रणभूमौ । प्रतीर्यतेप्रतिक्षिप्यते प्रतिहन्यत इत्यर्थः ॥७३॥ अथ भयसंशयात्मकशङ्कानिरासे यत्नमुपदिशतिभक्तिः परात्मनि परं शरणं नुरस्मिन् देवः स एव च शिवाय तदुक्त एव । धर्मश्च नान्य इति भाव्यमशङ्कितेन सन्मार्गनिश्चलरुचेः स्मरताऽञ्जनस्य ॥७४॥ शरणं-- अपायपरिरक्षणोपायः। नु:-पुरुषस्य । अशंकितेन-भयसंशयरहितेन तद्भेदा (-त् ) १२ द्विधा हि शङ्का । उक्तं च तत्त्व ठीक है या नहीं या वह अनेकान्त रूप ही है या एकान्त रूप है तो सद्यक्तिरूपी तीर्थमें अवगाहन करके उसे दूर करना चाहिए । युक्ति कहते हैं नय प्रमाणरूप हेतुको। समीचीनअवाधित युक्तिको सद्युक्ति कहते हैं। सद्युक्ति तीर्थ है युक्ति और आगममें कुशल गुरु तथा युक्तिसे समर्थित आगम । कहा भी है 'जिनागम और जिनागमके ज्ञाता गुरु, वास्तव में ये दो ही तीर्थ हैं क्योंकि उन्हींके द्वारा संसाररूपी समुद्र तिरा जाता है । उनका सेवक ही तीर्थसेवक है ॥७३॥ शंका नामक अतीचारसे होनेवाले अपायको कहते हैं जैसे शूरवीर पुरुष शत्रुओंको मारनेका संकल्प करके भी युद्ध में यदि ऐसे घोड़ेपर चढ़ा हो जो वेगसे दौड़ता हुआ कभी पूरब और कभी पश्चिमकी ओर जाता हो तो वह शत्रुओंके द्वारा मारा जाता है । उसी तरह सम्यक्दृष्टि मोहरूपी शत्रुओंको मारनेका निश्चय करके भी यदि सर्वज्ञके वचनोंमें 'यह ऐसा ही है या अन्यथा है' इस प्रकार दोनों ही कोटियोंको स्पर्श करनेवाली प्रतीतिका आश्रय लेता है तो वह मोहरूपी शत्रुओंके द्वारा सम्यग्दर्शनसे च्युत कर दिया जाता है ।।७३॥ भय और संशयरूप शंकाको दूर करने के लिए प्रयत्न करनेका उपदेश करते हैं इस लोकमें जीवको केवल परमात्मामें भक्ति ही शरण है, मोक्षके लिए उसी परमात्माकी आराधना करनी चाहिए, दूसरेकी नहीं, उसी परमात्माके द्वारा कहा गया धर्म ही मोक्षदाता है दूसरा नहीं। इस प्रकार सन्मार्ग पर निश्चल श्रद्धा करनेवाले अंजन चोरका स्मरण करते हुए मुमुक्षुको भय और संशयको छोड़कर निःशंक होना चाहिए ॥७४॥ विशेषार्थ-शंकाके दो भेद हैं-भय और संशय । कहा भी है-मैं अकेला हूँ, तीनों लोकोंमें मेरा कोई रक्षक नहीं है, इस प्रकार रोगोंके आक्रमणके भयको शंका कहते हैं। अथवा 'यह तत्त्व है या यह तत्त्व है ? यह व्रत है या यह व्रत है ? यह देव है या यह देव है' इस प्रकारके संशयको शंका कहते हैं। इन दोनोंसे जो मुक्त है वही निःशंक है । उसीका उपाय बताया है। मृत्यु आदिके भयसे मुक्त होनेके लिये यह श्रद्धा करना चाहिए कि परमात्माके सिवाय इस संसारमें अन्य कोई शरण नहीं है । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें अशरण भावनाका चिन्तन करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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