SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ धर्मामृत ( अनगार) अथ सम्यक्त्वस्योद्योतेनाराधनां विधापयिष्यन् मुमुक्षूस्तदतिचारपरिहारे व्यापारयति । दुःखेत्यादि दुःखप्रायभवोपायच्छेदोद्युक्तापकृष्यते । दृग्लेश्यते वा येनासो त्याज्यः शङ्कादिरत्ययः ॥७॥ दुःखं प्रायेण यस्मिन्नसौ भवः संसारस्तस्योपायः-कर्मबन्धः, अपकृष्यते स्वकार्यकारित्वं हाप्यते । उक्तं च 'नाङ्गहीनमलं छेत्तुदर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥'-[ रत्न. श्रा. २१ ] लेश्यते-स्वरूपेणाल्पीक्रियते । अत्ययः-अतिचारः ॥७॥ अथ शङ्कालक्षणमाहविश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपयतः शङ्कास्तमोहोदयाज __ज्ञानावृत्युदयान्मतिः प्रवचने दोलायिता संशयः। दृष्टि निश्चयमाश्रितां मलिनयेत् सा नाहिरज्ज्वादिगा, या मोहोदयसंशयात्तदरुचिः स्यात्सा तु संशोतिदृक् ।।७१॥ विश्वं-समस्तवस्तुविस्तारम् । अभ्युपयतः-तथा प्रतीतिगोचरं कुर्वतः । अस्तमोहोदयात्दर्शनमोहोदयरहितात् । प्रवचने-सर्वज्ञोक्ततत्त्वे । निश्चयं-प्रत्ययम् । सा-प्रवचनगोचरा शङ्का । अहि निर्ग्रन्थ-रत्नत्रय ही प्रवचनका सार है, वही लोकोत्तर और अत्यन्त विशुद्ध है । वही मोक्षका मार्ग है, इसलिए इस प्रकारकी श्रद्धा करनी चाहिए। और उस श्रद्धाको पुष्ट करना चाहिए ॥६९।। सम्यग्दर्शनके उद्योतके द्वारा आराधना करनेकी इच्छासे मुमुक्षुओंको उसके अतीचारोंको त्यागनेका उपदेश करते हैं यह संसार दुःखबहुल है। इस दुःखका साक्षात् कारण है कर्मबन्ध और परम्परा कारण हैं मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र । उनका अत्यन्त विनाश करने में समर्थ है सम्यग्दर्शन । किन्तु शंका आदि अतीचार उस सम्यग्दर्शनको अपना कार्य करने में कमजोर बनाते हैं तथा उसके स्वरूपमें कमी लाते हैं अतः उन्हें छोड़ना चाहिए ।। ७०।। विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा रखते हुए अन्तरंग व्यापार या बाह्य व्यापारके द्वारा उसके एक अंशके खण्डित होनेको अतीचार कहते हैं। कहा भी है-'निःशंकित आदि अंगोंसे हीन सम्यग्दर्शन जन्मकी परम्पराको छेदन करनेमें असमर्थ है; क्योंकि अक्षरसे हीन मन्त्र सर्पादिके विषकी वेदनाको दूर नहीं करता' ॥७०।। शंका नामक अतीचारका स्वरूप कहते है हके उदयका अभाव होनेसे, सर्वज्ञकी आज्ञासे विश्वको-समस्त वस्तु विस्तारको-'यह ऐसा ही है' इस प्रकार मानते हुए ज्ञानावरण कर्मके उदयसे सर्वज्ञके द्वारा कहे गये तत्त्वमें 'यह है या यह नहीं है' इस प्रकारकी जो डगमगाती हुई प्रतिपत्ति होती है उसे संशय कहते हैं । उसे ही शंका नामक अतीचार कहते हैं । वह प्रवचन विषयक शंका निश्चयसे-वस्तु स्वरूपके यथार्थ प्रत्ययसे सम्बन्ध रखनेवाले सम्यग्दर्शनको मलिन करती है । किन्तु यह साँप है या रस्सी है इस प्रकारकी शंका सम्यग्दर्शनको मलिन नहीं करती। किन्तु दर्शन मोहके उदयसे होनेवाले सन्देहसे जो प्रवचनमें अनद्धा होती है, वह संशय मिथ्यात्व है ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy