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________________ द्वितीय अध्याय १६५ अथ एवमनन्यसामान्यमहिमा सम्यक्त्वपरमप्रभुः कथमाराध्यत इति पृच्छन्तं प्रत्याहमिथ्यादृग् यो न तत्त्वं श्रथति तदुदितं मन्यतेऽतत्त्वमुक्तं, नोक्तं वा तादृगात्माऽऽभवमयममृतेतीदमेवागमार्थः । निर्ग्रन्थं विश्वसारं सुविमलमिदमेवामृताध्वेति तत्त्व श्रद्धामाधाय दोषोज्झनगुणविनयापादनाभ्यां प्रपुष्येत् ॥६९॥ मिथ्यादृक्-स मिथ्यादृष्टिर्भवतीति संबन्धः। उदितं-'यो युक्त्या' इत्यादिना प्रबन्धेन प्रागुक्तम् । ६ उक्तं-उपदिष्टम् । तथा चोक्तम् 'मिच्छाइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं ण सद्दहदि । सद्दहदि असब्भावं उवइ8 अणुवइटुं वा ॥'--[ गो. जी. १८ ] तादृक्-मिथ्यादृक् सन् । आभवं-आसंसारम् । अमृतामृतः । इति हेतोः तत्त्वश्रद्धां प्रपुष्येदिति संबन्धः। आगमार्थ:-सकलप्रवचनवाच्यम् । निर्ग्रन्थं-ग्रथ्नन्ति दी/कुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाःमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि तेभ्यो निष्कान्तं रत्नत्रयमित्यर्थः । तदुक्तम् 'णिग्गंथं पव्वयणं इणमेव अणुत्तरं मुपति ( रं-सुपरि- ) सुद्ध। इणमेव मोक्खमग्गो(त्ति) मदी कायव्विया तम्हा ॥' [ भ. आरा. ४३ ] अमतावा-मोक्षमार्गः। अत्र 'इति'शब्दः स्वरूपार्थः। मिथ्यात्वादित्रयं हेयं तत्त्वं-रत्नत्रयं १५ चो उपादेयमित्येवंविधप्रतिपत्तिरूपमित्यर्थः। आधाय-अन्तःसन्निहितां कृत्वा । दोषः-स्वकार्यकारित्वहायनं स्वरूपालङ्करणं वा । प्रपुष्येत्-प्रकृष्टपुष्टिं नयेत क्षायिकरूपां कुर्यादित्यर्थः ॥६९॥ इस प्रकार असाधारण महिमावाले सम्यक्त्वरूप परम प्रभुकी आराधना कैसे की जाती है इसका उत्तर देते हैं ___ 'मैं' इस अनुपचरित ज्ञानका विषयभूत आत्मा अनादिकालसे वैसा मिथ्यादृष्टि होकर जन्ममरण करता आता है। इसलिए मुमुक्षुको यह प्रतीयमान निग्रन्थ ही सकल आगमका सार है, सकल जगत्में उत्कृष्ट है, अत्यन्त शुद्ध है, अमृतका-जीवन्मुक्ति और परममुक्तिका मार्ग है, इस प्रकारकी तत्त्वश्रद्धाको अन्तःकरणमें समाविष्ट करके, उसे दोषोंके त्याग और दोषोंसे विपरीत गुणों तथा विनयकी प्राप्तिके द्वारा खूब पुष्ट करना चाहिए अर्थात् उसे क्षायिक सम्यक्त्वरूप करना चाहिए ।।६९।। विशेषार्थ-जो पीछे तेईसवें श्लोक द्वारा कहे गये तत्त्वको नहीं मानता और उपदिष्ट या अनुपदिष्ट अतत्त्वको मानता है वह मिथ्यादृष्टि है। कहा भी है-मिथ्यादृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान नहीं करता। किन्तु उपदिष्ट या अनुपदिष्ट अतत्त्वका श्रद्धान करता है। अस्तु । यहाँ मिथ्यादृष्टिका स्वरूप और मिथ्यात्वका फल बतलाकर तत्त्वश्रद्धाका रूप बतलाया है तथा उसे पुष्ट करने की प्रेरणा की है। एकमात्र तत्त्वकी अश्रद्धा और अतत्त्वकी श्रद्धारूप मिथ्यात्वके कारण ही यह आत्मा अनादिकालसे संसारमें जन्ममरण करता है इसलिये अतत्त्वकी श्रद्धा छोड़कर तत्त्वकी श्रद्धा करनी चाहिए। वह तत्त्व है निर्ग्रन्थ । जो संसारको लम्बा करता है वह है ग्रन्थ-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र, उससे जो रहित हो वह है निर्ग्रन्थ अर्थात् रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र । 'मिथ्यात्व आदि हेय हैं, रत्नत्रय उपादेय हैं-इस प्रकारकी दृढ़ श्रद्धा ही तत्त्व श्रद्धा है । कहा है naanaaaaaaaaa Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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