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________________ प्रथम अध्याय अथ योवनमपवदति - पित्रोः प्राप्य मृषामनोरथशतैस्तैस्तारुण्यमुन्मागंगो दुर्वारव्यसनाप्तिशङ्किमनसोर्दुः खाचिषः स्फारयन् । तत्किचित्प्रखरस्मरः प्रकुरुते येनोद्धधाम्नः पितॄन् क्लिश्नन् भूरि विडम्बनाकलुषितो धिग्दुर्गतौ मज्जति ॥ ६९ ॥ उद्धधाम्नः - विपुलतेजस्कान् प्रशस्तस्थानान् वा । विडम्बना: - खरारोपणादिविगोपकाः । दुर्गती - दारिद्र्ये नरके वा ॥ ६९ ॥ ६ अथ तारुण्येऽपि अविकारिणः स्तौति- धन्यास्ते स्मरवाडवानलशिखावीप्रः प्रवल्गबल Jain Education International ५५ क्षाराम्बुनिरवग्रहेन्द्रियमहाग्राहोऽभिमानोर्मिकः । aure संप्रयोगनियतस्फीतिः स्वसाच्चक्रिभि स्तीर्णो धर्मयशः सुखानि वसुवत्तारुण्यघोरार्णवः ॥७०॥ दोषाकरः - दुर्जनश्वन्द्रश्च । स्फीतिः -- प्रतिपत्तिर्वृद्धिश्च । कुर्वाणैः । वसुवत् - रत्नानीव ॥७०॥ अथ मध्यावस्थामेकादशभिः पद्यधिक्कुर्वाणः प्रथमं तावदपत्यपोषणाकुलमतेर्धनाथितया कृष्यादिपरि- १५ क्लेशमालक्षयति यत्कन्दर्पवशंगतो विलसति स्वैरं स्वदारेष्वपि प्राययुरितस्ततः कटु ततस्तुग्घाटको धावति । अप्यन्यायशतं विधाय नियमाद् भतं यमिद्वाग्रहो स्वसाच्चक्रिभिः - आत्मायत्तानि वर्धिष्ण्वा द्रविणाशया गतवयाः कृष्यादिभिः प्लुष्यते ॥७१॥ यौवनकी निन्दा करते हैं माता-पिता के सैकड़ों मिथ्या मनोरथोंके साथ कि बड़ा होनेपर यह पुत्र हमारे लिए अमुक-अमुक कार्य करेगा, युवावस्थाको प्राप्त करके कुमार्गगामी हो जाता है और कहीं यह ऐसे दुर्व्यसनों में न पड़ जाये जिनमेंसे इसका निकालना अशक्य हो इस आशंकासे दुःखीमन माता-पिता की दुःखज्वालाओंको बढ़ाता हुआ कामके तीव्रवेगसे पीड़ित होकर ऐसे निन्दनीय कर्मों को करता है जिससे प्रतिष्ठित माता-पिताको क्लेश होता है । तथा वह स्वयं समाज और राजाके द्वारा दिये गये दण्डोंसे दुःखी होकर नरकादि दुर्गतिमें जाता है ॥ ६९ ॥ जो युवावस्था में भी निर्विकार रहते हैं उनकी प्रशंसा करते हैं युवावस्था एक भयंकर समुद्रके समान है। उसमें कामरूपी बड़वाग्नि सदा जलती रहती है, बलवीर्य रूप खारा जल उमड़ा करता है, निरकुंश इन्द्रियरूपी बड़े-बड़े जलचर विचरते हैं, अभिमानरूपी लहरें उठा करती हैं । समुद्र दोषाकर अर्थात् चन्द्रमाकी संगति पाकर उफनता है, जवानी दोषाकर अर्थात् दुर्जनकी संगति पाकर उफनती है । जिन्होंने धनकी तरह धर्म, यश और सुखको अपने अधीन करके इस घोर जवानीरूपी समुद्रको पार कर लिया वे पुरुष धन्य हैं ॥७०॥ युवावस्थाके पश्चात् आनेवाली मध्य अवस्थाकी ग्यारह पद्योंसे निन्दा करते हुए सर्वप्रथम सन्तानके पालन के लिए व्याकुल गृहस्थ धनके लिए जो कृषि आदि करता है उसके कष्टों को कहते हैं For Private & Personal Use Only ३ ९ १२ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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