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________________ ३ ६ १२ ५६ धर्मामृत (अनगार ) अहंयुः - साहङ्कारः । तुग्घाटकः – अपत्यघाटी । अपि इत्यादि । तथाहि बाह्या:'वृद्धौ च मातापितरी साध्वी भार्या सुतः शिशुः । अप्यन्यायशतं कृत्वा भर्तव्या मनुरब्रवीत् ॥७१॥ [ मनु. ११।१] अथ कृषि पशुपाल्य - वाणिज्याभिरुभयलोकभ्रशं दर्शयति यत् संभूय कृषीबलैः सह पशुप्रायैः खरं खिद्यते यद् व्यापत्तिमयान् पशूनवति तद्देहं विशन् योगिवत् । यन्मुष्णाति वसून्यसूनिव ठकक्रूरो गुरूणामपि भ्रान्तस्तेन पशूयते विधुरितो लोकद्वयश्रेयसः ॥७२॥ संभूय - - मिलित्वा । विधुरितः - वियोजितः ॥७२॥ अथ धनलुब्धस्य देशान्तरवाणिज्यं निन्दति — यत्र तत्र गृहिण्यादीन् मुक्त्वापि स्वान्यनिर्दयः । न लङ्घयति दुर्गाणि कानि कानि धनाशया ॥७३॥ यत्र तत्र — अपरीक्षितेऽपि स्थाने । स्वः - आत्मा । अन्यः – सहायपश्वादिः ॥७३॥ जो सन्तान प्रायः अहंकारमें आकर जिस तिस स्वार्थ में अनिष्ट प्रवृत्ति करती है और कामके वश होकर अपनी धर्मपत्नीमें भी स्वच्छन्दतापूर्वक कामक्रीड़ा करती है उसी सन्तानका अवश्य पालन करनेके लिए अति आग्रही होकर मध्य अवस्थावाला पुरुष बढ़ती हुई धनकी तृष्णासे सैकड़ों अन्याय करके भी कृषि आदि कर्मसे खेदखिन्न होता है ॥ ७१ ॥ आगे कहते हैं कि कृषि, पशुपालन और व्यापार आदिसे दोनों लोक नष्ट होते हैंयतः वह मध्यावस्थावाला पुरुष पशुके तुल्य किसानोंके साथ मिलकर अत्यन्त खेदखिन्न होता है और जैसे योगी योग द्वारा अन्य पुरुषके शरीर में प्रवेश करता है वैसे ही वह पशुओं के शरीर में घुसकर विविध आपत्तियोंसे ग्रस्त पशुओंकी रक्षा करता है । तथा ठगके समान क्रूर वह मनुष्य गुरुजनोंके भी प्राणोंके तुल्य धनको चुराता है इसलिए वह विपरीतमति इस लोक तथा परलोकके कल्याणसे वंचित होकर पशुके समान आचरण करता है || ७२ ॥ विशेषार्थ - यहाँ खेती, पशुपालन और व्यापारके कष्टों और बुराइयों को बतलाया है । तथा खेती करनेवाले किसानोंको पशुतुल्य कहा है । यह कथन उस समयकी स्थितिकी दृष्टिसे किया गया है । आज भी गरीब किसानोंकी दशा, उनका रहन-सहन पशुसे अच्छा नहीं है । दूसरी बात यह है कि पशुओंका व्यापार करनेवाले पशुओंकी कितनी देखरेख करते थे यह उक्त कथनसे प्रकट होता है कि वे पशुओंके कष्टको अपना ही कष्ट मानते थे तभी तो पशुओंके शरीरमें प्रवेश करनेकी बात कही है । तीसरी बात यह है कि व्यापारी उस समय में भी अन्याय करनेसे सकुचाते नहीं थे। दूसरोंकी तो बात ही क्या अपने गुरुजनोंके साथ भी छलका व्यवहार करके उनका धन हरते थे । ये सब बातें निन्दनीय हैं । इसीसे इन कर्मोंकी भी निन्दा की गयी है ॥ ७२ ॥ आगे धनके लोभसे देशान्तर में जाकर व्यापार करनेवालेकी निन्दा करते हैं अपनी पत्नी, पुत्र आदिको यहाँ-वहाँ छोड़कर या साथ लेकर भी धनकी आशासे यह मनुष्य किन वन, पहाड़, नदी वगैरहको नहीं लाँघता और इस तरह अपने पर तथा अपने परिजनोंपर निर्दय हो जाता है, स्वयं भी कष्ट उठाता है और दूसरोंको भी कष्ट देता है ॥ ७३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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