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अलबेली आम्रपाली २२७
द्वार की ओर देखा कि एक वयोवृद्ध, गंभीर, प्रशांत और सौम्य पुरुष भीतर प्रवेश कर रहे हैं । उसके पीछे वह तरुण शिष्य भी है।
ये स्वयं वैद्यराज होंगे, ऐसा सोचकर कादंबिनी आसन से उठी और दोनों हाथ जोड़कर गोपालस्वामी की ओर देखती रही। गोपालस्वामी ने आगंतुक के सुकुमार चेहरे को देखा, आश्चर्य का अनुभव करते हुए वे निकट आए और आशीर्वाद देते हुए बोले-“संगीतकार सुकुमार तो हो सकते हैं, परन्तु इतने तरुण नहीं हो सकते । आप आसन पर बैठे और कहें कि आपने इस वृद्ध को क्यों याद किया है ?" यह कहकर गोपालस्वामी अपने आसन पर बैठ गए । कादंबिनी भी अपने आसन पर बैठ गई। उसने एक बार गोपालस्वामी की ओर तथा बाद में तरुण शिष्य की ओर देखा।
गोपालस्वामी ने पूछा- "आपका शुभ नाम ?" 'निर्मलदेवमैं आपको एक गुप्त बात कहने आया हूं । यदि..."
... ''समझा।" कहकर गोपालस्वामी ने शिष्य की ओर देखा : शिष्य प्रणाम कर खण्ड से बाहर निकल गया।
कादंबिनी बोली- "गुरुदेव ! मैं पुरुष नहीं, स्त्री हूं।"
'मुझे भी संशय तो हुआ था, किन्तु संशय को व्यक्त करना उचित नहीं लगा। तेरा नाम'।"
"कादंबिनी।"
"उत्तम नाम ! पुत्रि ! तुझे जो कुछ कहना है वह निःसंकोच भाव से कह । तेरा देश ?"
"देश का पता नहीं. इतना जानती हूं कि मेरा लालन-पालन इसी नगरी मे हुआ है। मैं छोटी से बड़ी यहीं हुई हूं।"
"अच्छा, तब तो तू हमारे गांव की ही कन्या है । बोल, जो कुछ कहना है स्पष्ट कह।"
कादंबिनी ने अपनी पूरी रामकहानी सुनाई-कैसे वह चंपा नगरी के वेश्या के यहां पली-पूसी और कैसे वह विषकन्या बनी। राजगृही में ही रानी लोक्यसुन्दरी का एकाकी पुत्र पहला शिकार बना । फिर वह वैशाली आयी। चार प्रमुख व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा। ये सारी बातें उसने विस्तार से बतायीं। फिर मैं वैशाली से चंपा नगरी में आई। रास्ते में रक्षक की नीति बिगड़ी और वह भी मौत का शिकार बना।' यह सब बताकर वह बोली- "गुरुदेव ! मेरे जीवन की यह करुण कहानी है। वैशाली में आप आए । उसी समय से आपसे मिलने की मेरी इच्छा प्रबल हुई। वहां आपसे मिलना उचित नहीं था। इसलिए मैं आठ-दस दिन पहले यहां आ गई। मेरी इच्छा यह है कि आप जैसे समर्थ महापुरुष ही मेरी काया मे व्याप्त विष को दूर कर सकते हैं । आप ही मुझे इस