Book Title: Yogshastra
Author(s): Yashobhadravijay
Publisher: Vijayvallabh Mission

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Page 307
________________ योग शास्त्र [२८१ २-४ वर्ष के पश्चात् वह बढ़िया जब अपने मकान में आई तो उस की दृष्टि अकस्मात् ही अपने गोखले की दीवार पर पड़ी। अरे ! यह क्या ! स्वयं सुवर्ण ही मानो किराएदार को लेकर पलायन कर चुका था। अब पछताए क्या होत, जब चिड़ियां चुग गई खेत । लोभी व्यक्ति का धन नाश के लिए ही होता है । एक साधु के पास एक बहिन आई । साधु ने कहा, "साधर्मी सेवा फंड एकत्र करने वाले व्यक्ति यहाँ आए हैं, उस में कुछ लिखा दो-५० रुपये मात्र । वह महिला मनिराज की बात को सुनी अनसुनी करके चली गई तथा अकस्मात ही अगले दिन मुनि जी के पास आकर कहने लगी, “महाराज ! कल मेरा नुक्सान हो गया है, कुछ कृपा करो।" मुनि जी की पृच्छा के अनन्तर उस ने उत्तर दिया कि, 'कल मेरा पुत्र हवाई जहाज़ में विदेश जा रहा था, परन्तु मार्ग में उस की हीरे की अंगूठी, जिस की कीमत५०००रु. से कम न थी, कहीं पर खो गई है । वह आप की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है।" मुनि जी ने विचार किया कि दान पुण्य तो नहीं करते, अब : अंगूठी गुम न होगी तो और क्या होगा? वह स्वयं बोली, "महाराज ! कल ही आप ने ५० रुपये साधर्मी सेवा में देने के लिए कहा था। मैं वह तो कल दे नहीं सकी। अब इस प्रकार से ५००० रु० का Loss सहन करना पड़ रहा है। क्या करू ! मेरे नसीब में यही लिखा था।" मुनि जी ने उत्तर दिया, “बहिन ! चिंता मत करो। तुम्हारी अंगूठी संभव है कि किसी साधर्मी के हाथ में पहुंची होगी । तुम्हारा भाग्य तो श्रेष्ठ है कि तुम्हारे द्वारा ५००० रु० का दान हो गया। अब पश्चाताप मत करो अन्यथा ५००० रु० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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