Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 11
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) पर हैं। कर्म के संयोग से दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, काम, क्रोध (भाव हों), वे सब भाव मेरे आत्मा से भिन्न है – ऐसे श्रद्धा, ज्ञान करना। सङ्कल्प-विकल्प और विभाव मतिज्ञानादि चार,... लो! इस ओर हैं न? भाई ! कुछ समझ में आया? मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि, मनःपर्यय भी एक समय की पर्याय विशेष है। सामान्य स्वभाव त्रिकाल से वह भिन्न है। जिन-जिन भावों में पुद्गल का निमित्त है, वे सब भाव मेरे निज स्वभाविकभाव नहीं हैं... लो! जिस भाव में कर्म का निमित्त है, वह मेरा स्वभावभाव नहीं है, सब पर है। आहा...! राग-द्वेष तो पर; पुण्य-पाप, दया-दान का भाव पर, परन्तु निमित्त की अपेक्षा रखकर क्षयोपशम ज्ञानादिक हैं, वे भी पर हैं। मैं त्रिकाल ज्ञान -चिदानन्दस्वरूप हूँ – ऐसी दृष्टि करना, ऐसी श्रद्धा करना और उसका ज्ञान करना, वही अपना स्वभाव है। समझ में आया? मैं तो एकाकार परम शुद्ध स्वसंवेदनगोचर एक अविनाशी द्रव्य हूँ। भगवान आत्मा स्वसंवेदन – अपने ज्ञान से ज्ञान में जानने में आता है। ज्ञान अपने ज्ञान से ज्ञान जानने में आता है – ऐसा स्वसंवेदन-स्व से प्रत्यक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष होनेवाला मैं आत्मा हूँ, उसका नाम आत्मा। रागादि पर है उनके साथ मेरा सम्बन्ध नहीं है। ओ...हो...! समझ में आया? समयसार का दृष्टान्त दिया है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एकतारूप ही एक निश्चित मोक्षमार्ग है... एक ही मोक्षमार्ग है। व्यवहार-व्यवहार मोक्षमार्ग नहीं हैं। भगवान आत्मा पूर्ण चैतन्यभाव शुद्ध उसका अन्तर सम्यग्दर्शन, उसका निर्विकल्प ज्ञान, उसकी वीतरागी पर्याय (हो) वह एक ही मोक्षमार्ग है। दो मोक्षमार्ग नहीं हैं । जो कोई अन्य द्रव्यों का स्पर्श न करके एक इस ही आत्मामयी भाव में ठहरता है, उसी को निरन्तर ध्याता है। उसको चेतता है, उसी में निरन्तर विहार करता है... वह शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है। पुण्य को पाप जाने वही ज्ञानी है जो पाउ वि सो पाउ मुणि सव्वु इ को वि मुणेइ। जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ सो बुह को वि हवेई॥७१॥

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