Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 467
________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) के जाननेवाले ज्ञानी विरल होते हैं । उसमें (भी) उनके पास ऐसी बातें सुननेवाले जीव विरल होते हैं। बात रुचती नहीं... समझ में आया ? ४६७ विरले इस तत्त्व को ध्याते हैं । विरले जीव, आत्मा का ध्यान ( धरते हैं) । ज्ञानानन्दस्वरूप शुद्ध प्रभु, उसका ध्यान करें, वे तो विरल जीव हैं, विरल जीव हैं, विरल हैं । ओ...हो... ! समझ में आया? यह विरला कहा । बहुत पैसेवाले हैं और बड़ी पदवीवाले हैं और बहुत सुन्दर हैं, बहुत परिवारवाले हैं... समझ में आया ? स्थायी आमदनीवाला है। इसे पाँच-दस लाख की स्थायी आमदनी है... यह... स्थायी आमदनी । क्या कहते हैं ? उसे विरला नहीं कहा। वे सब भटकनेवाले हैं। (लोग) बातें करते हैं, इसे तो स्थायी आमदनी, बापा ! घर बैठे आमदनी, पाँच लाख - दस लाख - बारह महीने स्थायी आमदनी है । स्थायी आमदनी अर्थात् क्या? यह बैठा कहाँ है ? ऐसा कहते हैं। लोग बातें करते हैं। यहाँ तो कहते हैं, विरले ही इस तत्त्व का ध्यान करें । उसे अन्दर में आनन्द की स्थायी आमदनी है । आहा...हा... ! कहीं बाहर जाना पड़े नहीं और अन्दर ही अन्दर में बैठे (-बैठे) आमदनी मिले । आहा...हा... ! समझ में आया ? वे विरले जीव, तत्त्व को ध्याते हैं । विरले ही तत्त्व को धारण करके स्वानुभवी होते हैं । ऐसी बात - निर्विकल्प भगवान आत्मा की बात, विरले सुनकर, धारण कर स्वानुभव करते हैं। यह बहुत - विरल -विरल, लाखों-करोड़ों में विरल विरल (होते हैं)। ऐसी उनकी दुर्लभता बताकर, उनकी महिमा की है। दुर्लभता कहकर उनकी महिमा की है। विशेष कहेंगे..... ( श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव !) wwww

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