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योगसार-प्राभृत
वीतरागता है, वह अबंध में कारण है; ऐसा समझना चाहिए। यहाँ व्यक्त वीतरागता का महत्त्व बताने का भाव है। ___ यहाँ अप्रासुक' का अर्थ - अभक्ष्य नहीं समझना चाहिए। जो भक्ष्य होकर भी सचित्त हैं उसे यहाँ अप्रासुक कहा है।
इस विषय को स्पष्ट समझने के लिये समयसार गाथा-९७ के आगे-पीछे के प्रकरण को अवश्य देखें। न भोगता हुआ मिथ्यादृष्टि बंधक -
सरागो बध्यते पापैरभुजानोऽपि निश्चितम् ।
अभुजाना न किं मत्स्या: श्वभ्रं यान्ति कषायतः ।।१६७।। अन्वय :- अभुजाना: मत्स्याः कषायत: किं श्वभ्रं न यान्ति ? (अवश्यमेव यान्ति; तथा एव) अभुजान: अपि सरागः (जीव:) निश्चितं पापैः बध्यते।।
सरलार्थ :- जिसप्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र में रहनेवाला तन्दुलमत्स्य न भोगता हुआ भी क्या कषाय से अर्थात् भोगने की लालसा से नरक को प्राप्त नहीं होता? अर्थात् नरक को प्राप्त होता ही है। उसीप्रकार द्रव्यों को न भोगता हआ भी भोग में सुख की मान्यता रखनेवाला सरागी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वादि सर्व पाप कर्मों के बंध को प्राप्त होता है, यह निश्चित है।
भावार्थ :- कर्मबन्ध में मूल कारण अभिप्राय है, यह विषय मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र के सातवें अधिकार में आस्रवतत्त्व का अन्यथा रूप' प्रकरण में निम्न शब्दों में बताया है - तथा बाह्य क्रोधादि करना उसको कषाय जानता है, अभिप्राय में जो राग-द्वेष बस रहे हैं, उनको नहीं पहिचानता।
पंचेंद्रिय के विषयों में भोगप्रवृत्ति से एवं सात व्यसन तथा तीव्र पाप में प्रवृत्त होने से मिथ्यादृष्टि जीव को ४० कोडाकोडी सागर के चारित्रमोहनीय कर्म का स्थिति-बंध होता है । इसकी तुलना में विषयभोगों, पापों एवं व्यसनों के सेवन में सुखरूप मान्यता करने से अर्थात् मिथ्यात्व परिणाम से ७० कोडाकोडी सागर के दर्शनमोहनीय कर्म का स्थिति बंध होता है। भोग नहीं भोगनेवाले ने तो ४० कोडीकोडी सागर का स्थितिबंध न होवे, ऐसी मनोकल्पना से व्यवस्था तोकी; लेकिन ७० कोडाकोडी सागर स्थितिबंध चालू रखा है। अतः भोग न भोगनेवाले मिथ्यादृष्टि को भी ४० कोडाकोडी सागर का चारित्रमोहनीय का और ७० कोड़ाकोड़ी सागर का दर्शनमोहनीय का - दोनों का बन्ध हो रहा है - ऐसा समझना चाहिए। समयसार गाथा १९७ में तथा इसकी टीका में इस श्लोकगत विषय को उदाहरण के साथ स्पष्ट किया है, उसे अवश्य देखें। ज्ञानी/सम्यग्दृष्टि भोगों से अबन्धक -
ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैर्नैव लिप्यते ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/122]