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भूमिका
छन्दःशास्त्र का उद्भव और विकास
किसी पदार्थ के पायतन को उसका छन्द कहा जाता है । छन्द के बिना किसी भी वस्तु की अवस्थिति इस संसार में संभव नहीं है । मानव-जीवन को भी छन्द कहा जाता है । सात छन्दों या मर्यादाओं से जीवन मर्यादित है । छन्द या मर्यादा के कारण ही मनुष्य स्व और पर की सीमाओं में बंधा हुआ है। स्वच्छन्दत्व उसे प्रिय होता है परच्छन्दत्व नहीं। मनुष्य स्वकीय छन्दों या सीमाओं को विस्तृत करता हुआ, स्वतन्त्रता के मार्ग का अनुशीलन करता हुआ अपने जीवन का उद्देश्य प्राप्त कर लेता है। छन्द पद का निर्वचन
छन्द और छन्दस् पदों की निरुक्ति क्षीरस्वामी ने 'छद' धातु से बतलाई है। अन्य व्युत्पत्तियों के अनुसार छन्द शब्द 'छदिर् ऊर्जने, छदि संवरणे, चदि आह्लादने दीप्तौ च, छद संवरणे, छद अपवारणे' धातुओं से निष्पन्न है।' वस्तुतः इन धातुओं से निष्पन्न शब्द विभिन्न अर्थो में पृथक्-पृथक् रूप से प्रयुक्त होते रहे होंगे। कालांतर में ये शब्द छन्द और छन्दस् शब्द-रूपों में खो गये । यास्क ने 'छन्दांसि छादनात्' कह कर आच्छादन के अर्थ में प्रयुक्त छन्द शब्द का अस्तित्व माना है। सायण ने ऋग्वेद-भाष्यभूमिका में 'आच्छादकत्वाच्छन्दः' कथन द्वारा यास्क का समर्थन किया है। छान्दोग्योपनिषद् की एक गाथा के अनुसार देव मृत्यु से डर कर त्रयी-विद्या में प्रविष्ट हुए । वे छंदों से आच्छादित हो गये । आच्छादन करने से ही छंदों का छंदत्व है।' ऐतरेय आरण्यक के अनुसार स्तोता को आच्छादित करके छंद पापकर्मों से रक्षित करते हैं । इन स्थानों पर आच्छादन अर्थ वाला छंद शब्द प्रयुक्त हुआ है। असीम चैतन्य-सत्ता को सीमाओं या मर्यादाओं में बांध कर ससीम बना देने वाली प्रकृति भी आच्छादन करने के कारण ही छन्द कही जाती है । वैदिक-दर्शन के अनुसार छन्द 'वाक्-विराज्' का भी नाम है जो सांख्य की प्रकृति या वेदांत की माया के १-वैदिक छन्दोमीमांसा, –पं० युधिष्ठिर मीमांसक, पृ० ११-१३ २-निरुक्त ७।१२ ३-छान्दोग्योपनिषद् १।४।२; तुलनीय गार्य का उपनिदान सूत्र ८।२ ४-ऐतरेय प्रारण्यक २।२