Book Title: Vruttabodh
Author(s): Shwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publisher: Shwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha

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Page 55
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकलि= निरचायि= निश्चितेत्यर्थः । अत्र ग्रहाणे = संग्रामे कलिना= प्रहरणायोद्यता काचित स्त्र्यपि व्यज्यते, सा कीदृशी? गुरु:- स्थूल: पर:= काटिपथाद्भागो यस्य तादृशो यस्तुरम: यस्तदुपरि (तमामह्य) कृतो विमो-विश्रामो यया, पुन: नन-मननामकैः सुन्दरगणैः अर्थात् नन-भनादिनामकयोद्धगणैरुपलक्षिता, पुनश्च लघुगुरून्= नुद्राहदूपान् चरान्- गुप्तदूतान् माति= परिमातिः- परिचिनोनीति यावत् इति लघुगुरुचरमा अत एव अमिः-- बद्भः करेषु येषां ते च ते सकला असिकरसकलाबदामभकलमत्यास्तेषामुचिता यो जयः- जयध्वनिस्तेन समिता कृतिगुम्वर:= महाचतरैः (विपक्षिमतैः ) अकलिमानाागिअनुभिनेति । भत्र प्रतिचर याम्-(15|||s) इति स्वरवर्णन्यास: ॥ (प्रति०) व्याख्याताः प्रतिशब्दाः । (भाषा) जिस के प्रत्येक चरगा का सातवाँ तथा चौदहब मक्षा गुरु हो और वहीं पर विश्राम हो उस को प्रहरणकलिता छन्द कहते हैं। इस के प्रत्येक चरण में नगण नगम गगण गगरा एक लघु तथा एक गुरु रहते हैं अत एव स्वाचिह-( I|||||||||||) इस प्रकार जानना चाहिये । ४९ ॥ भ्रमरविलसित पादे पादे मं-भ-न-ल-ग-चितं, तुर्थैरश्वैः कृतयतिललितम् । For Private And Personal Use Only

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