Book Title: Vivek Vilas
Author(s): Shreekrushna
Publisher: Aaryavart  Sanskruti Samsthan

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Page 272
________________ 270 : विवेकविलास निमेषार्धार्धमात्रेण भुवनेषु भ्रमत्यहो । मनश्चञ्चलसद्भावं युक्त्या भवति निश्चलम् ॥ 45 ॥ चञ्चल स्वभाव का मन आधे निमेष में तीनों लोक में भ्रमण का सामर्थ्य रखता है तथापि वह युक्ति (अभ्यास और वैराग्यं) से स्थिर हो जाता है, यह आश्चर्य ही है। लीयते यत्र कुत्रापि स्वेच्छया चपलं मनः । निराबाधं तथैवाशु व्यालतुल्यं हि वालितम् ॥ 46 ॥ चञ्चल मन निर्बाध हो तो व्याल की तरह, स्वैच्छा से कहीं भी घुस सकता है और यदि रोका जाए तो उसी तरह से क्षोभित होता है। मनश्चक्षुरिदं यावदज्ञानतिमिरावृतम् । तत्त्वं न वीक्ष्यते तावद्विषयेष्वेव मुह्यते ॥ 47 ॥ यह मन रूपेण नेत्र जब तक अज्ञान रूपेण अन्धकार से लिपटा है, तब तक तत्त्व का दर्शन नहीं करता है, वह विषयों के जाल में ही उलझता रहता है। जन्म मृत्युर्धनं दौस्थ्यं स्वे स्वे काले प्रवर्त्तते । तदस्मिन् क्रियते हस्त चेतश्चिन्ता कथं त्वया ॥ 48 ॥ जन्म, मरण, धन और दारिद्र्य - ये अपने-अपने अवसर पर साथ देते चलते हैं, अतएव हे मन ! तू व्यर्थ ही इस सम्बन्ध में क्यों चिन्ता करता है । यथा तिष्ठति निष्कम्पो दीपो निर्वातवेश्मगः । तथेहापि पुपान्नित्यं क्षीणधिः सिद्धवत्सुधीः ॥ 49 ॥ जिस प्रकार पवन रहित घर में दीपक स्थिर रहता है, वैसे ही पण्डित मन की समस्त वासनाओं का लय कर इस जगत् में सिद्ध की तरह निरन्तर स्थिर रहते हैं। " . जाता है, उसी तरह प्राणायाम के अभ्यास में विधिपूर्वक ही वायु को स्वस्थ दशा में लाया जाता है। किञ्चित् काल पर्यन्त परमादर के साथ योग का अभ्यास करने से इसका दमन सम्भव होता है और फिर सम्यग्ज्ञान होने से यह प्राण वायु स्वस्थता और समत्व को प्राप्त हो जाती है— सगर्भोऽगर्भ इत्युक्तः सजपो विजपः क्रमात् । इभो वा शरभो वापि दुराधर्षोऽथ केसरी ॥ गृहीतो दम्यमानस्तु यथास्वस्थस्तु जायते। तथा समोरणोऽस्वस्थो दुराधर्षश्च योगिनाम् ॥ न्यायतः सेव्यमानस्तु स एवं स्वस्थतां ब्रजेत् । यथैव मृगराड्नागः शरभो वापि दुर्मदः ॥ कालान्तरवशाद्योगाद्दम्यते परमादरात् । तथा परिचयात्स्वास्थ्यं समत्वं चाधिगच्छति ॥ (लिङ्ग. पूर्व. 8, 51-54) गीता में भी कहा है-... न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् । चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः । वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ( 6, 33-36 ) **गीता में भी आया है— यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ (गीता. 6, 19 )

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