Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 21
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ऐसा देवदुंदुभि मानो के विश्व के आप्त पुरुषों में आपका ही महा साम्राज्य कहते हुए सुशोभित रहा है। [अर्थात्-सर्व देवों में आपका चक्रवर्तीपणा परिलक्षित होता है । (७) तवोर्ध्वमूर्ध्वं पुण्यद्धि-क्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवन-प्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ॥८॥ अर्थ - [हे प्रभो !] पूर्ण समृद्धि के अनुक्रम के समान आपके मस्तक पर एक ऊपर एक स्थित तीन छत्र तीन जगत के स्वामित्व की विशालता को कहता हो इसप्रकार सुशोभित होते हैं । (८) एतां चमत्कारकरी, प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा, नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि हि ॥९॥ अर्थ - हे नाथ ! चमत्कार को करने वाली आपकी प्रातिहार्य लक्ष्मी को देखकर क्या मिथ्यादृष्टि भी आश्चर्य नहीं पाते हैं ? अर्थात्-सर्वजन-आश्चर्य पाते हैं। (९)

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