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२६२ विश्वतत्त्वप्रकाशः
[८०जगदुत्पादिका प्रकृतिः प्रधानं बहुधानकमिति प्रकृतेरभिधानानि च। ततः प्रकृतेर्महानुत्पद्यते । आसर्गप्रलयस्थायिनी बुद्धिर्महान् । ततो महतः सकाशादहंकार उत्पद्यते अहं शाता अहं. सुखी अहं दुःखी इत्यादिप्रत्ययविषयः । ततोऽहंकारात् गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पञ्च तन्मात्राः स्पर्शनर. सनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि पश्च बुद्धीन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि मनश्चेति षोडशगणाः समुत्पद्यन्ते । तेषु षोडशगणेषु पञ्चतन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि समुत्पद्यन्ते । तद् यथा। गन्धरसरूपस्पर्शेभ्यः पृथ्वी, रसरूपस्पर्शेभ्यो जलं, रूपस्पर्शाभ्यां तेजः, स्पर्शाद् वायुः, शब्दादाकाशं समुत्पद्यते इति सृष्टिक्रमः। एतानि चतुर्विंशतितवानि । पञ्चविंशको जीवः इति निरीश्वरसांख्याः। षड्विंशको महेश्वरः सप्तविंशकः परममुक्त इति सेश्वरसांख्याः। तेषु तत्त्वेषु मैं ज्ञाता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं आदि प्रत्यय इस अहंकार के विषय हैं । अहंकार से पांच तन्मात्र तथा ग्यारह इन्द्रिय ऐसे सोलह तत्त्वों का समूह उत्पन्न होता है । गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, तथा शब्द ये पांच तन्मात्र हैं । स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र ये पांच ज्ञानेन्द्रिय ह; वाणी, हाथ, पांव, गुद तथा उपस्थ ये पांच कमेंद्रिय हैं तया मन ग्यारहवां इन्द्रिय है। इन में पांच तन्मात्रों से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं । गन्ध, रस, रूप तथा स्पर्श से पृथ्वी होती है। रस, रूप तथा स्पर्श से जल होता है। रूप तथा स्पर्श से तेज होता है। स्पर्श से वायु तथा शब्द से आकाश होता है। इस प्रकार प्रकृति से महाभूतों तक चौवीस तत्त्व हैं । पच्चीसवां तत्त्व जीव है। निरीश्वरसांख्य इतने ही तत्त्वों को मानते हैं। सेश्वरसांख्य इन में दो तत्व और जोडते हैं-महेश्वर तथा परममुक्त । इन में मल प्रकृति अविकृति है (दूसरे किसी तत्त्व का विकार नही है )। महत् से तन्मात्रों तक सात तत्त्व प्रकृति तथा विकृति दोनों हैं ( ये किसी से उत्पन्न होते हैं तथा इन से कुछ उत्पन्न होता है)।
१ आजन्मप्रलयः जन्ममरणपर्यंतम् । २ प्रत्ययो विषयो यस्याहंकारस्य सः ।