Book Title: Vidwat Ratnamala Part 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Mitra Karyalay

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Page 174
________________ (१६२) लगाकर शिवजीके मन्दिर में जा पहुंचे ! स्वामीजीको वारवार वेष बदलते देख यह शंका हो सकती है कि उनकी श्रद्धा कैसे ठीक रही होगी? इसका उत्तर कथाकोशमें इस प्रकार दिया गया है:-- अन्तस्फुरितसम्यक्त्वे बहियाप्तकुलिङ्गकः । शोभितोऽसौ महाकान्तिः कर्दमाक्तमणियथा ॥ ' अर्थात् अन्तरंगके स्फुरायमान सम्यक्त्वसे और वाह्यके कुलिंग वेषसे स्वामी समन्तभद्र ऐसे शोभित होते थे, जैसे कीचडमें लिपटा हुआ अतिशय चमकदार मणि । सारांश यह है कि प्रवल रोगकें कारण उनका चारित्र शिथिल हो गया था, परन्तु सम्यक्त्वमें या श्रद्धानमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा था, वे असंयतसम्यग्दृष्टी थे। अस्तु । जिस समय शिवनीको वह विपुल नैवेद्य अर्पण होने लगा, उस समय स्वामीजीने जो कि शैव साधुका वेष धारण किये हुए वहां खड़े थे, कहा-“यदि महाराजकी आज्ञा मुझे मिल जावे, तो मैं यह नैवेद्य स्वयं भोलानाथको भक्षण करा सकता हूँ!" किसी चंचल पुरुपने यह आश्चर्ययुक्त वार्ता तत्काल ही राजासे जाकर कह दी। राजा बड़े ही . प्रसन्न हुए और स्वामीजीके दर्शन करनेके लिये स्वयं चले आये। फिर उन्होंने आज्ञा दे दी कि यह सब प्रसाद इन्हीं. नवागत ऋषि महाराजके हाथसे शिवजीको अर्पण हुआ करेगा। ऐसा ही हुआ। स्वामीजीने मंन्दिरके किवाड़ बन्द किये और नैवेद्य जिससे कि सैकड़ों ब्राह्मणोंका पेट भरता था, आप अकेले गिलंकृत। कर गये। फिर क्या था, हमेशाके लिये यह नियम हो गया । लोक

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