Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 77
________________ विदेशों में जैन धर्म 77 अध्याय 36 ब्रह्मदेश (बरमा) (स्वर्णभूमि) में जैनधर्म जैन शास्त्रों में ब्रह्मदेश को स्वर्णद्वीप कहा गया है। जगत प्रसिद्ध जैनाचार्य कालकाचार्य और उनके शिष्यगण स्वर्णद्वीप में निवास करते थे। उनके प्रशिष्य श्रमण सागर अपने गण सहित वहा पहले ही विद्यमान थे। वहां से उन्होने आसपास के दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में जैन धर्म का प्रचार किया था।34 थाईलैड स्थित नागबुद्ध की नागफण वाली प्रतिमाये पार्श्वनाथ की प्रतिमायें है। अध्याय 37 श्रीलंका में जैन धर्म भारत और लंका (सिंहलद्वीप) के युगो पुराने सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं। सिहलद्वीप में प्राचीन काल में जैन धर्म का प्रचार था। बौद्ध ग्रन्थ महावंश में कहा गया है कि राजा पांडुकामय ने चतुर्थ शती ईसा पूर्व में अपनी राजधानी अनुराधापुर में दो जैन निर्गन्थो के लिए एक मन्दिर और एक मठ बनवाया था। यह मन्दिर और मठ 38 90 ईसा पूर्व तक राजा वट्टगामिनि के काल तक विद्यमान रहा। ये जैन स्मारक 21 राजाओ के शासन काल तक विद्यमान रहे और बाद में बौद्ध संघाराम बना लिये गये। सम्पूर्ण सिंहलद्वीप के जनजीवन पर जैन संस्कृति की स्पष्ट छाप दृष्टिगोचर होती है। जैन मुनि यशकीर्ति ने ईसा काल की आरम्भिक शताब्दियों में सिंहलद्वीप जाकर वहां जैन धर्म का प्रचार किया था। जैन श्रावक सदैव समुद्र पार जाते थे, इसका उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है। महावंश के अनुसार, ईसा पूर्व 430 में जब अनुराधापुर बसा तक जैन श्रावक. वहां विद्यमान थे। वहां अनुराधापुर के राजा पांडुकामय ने ज्योतिय निग्गंठ के लिए घर बनवाया था। राजा पांडुकामय ने कुमण्ड निग्गंठ के लिए एक देवालय बनवाया था।

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