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पंचमः सर्गः
सरसीषु यत्र च शिरीषनिभास्तटबद्ध गारुडमणिद्युतयः । अतिसंदधुः समद हंसवधूर्न क्शैवलाश नकुतूहलिनीः ॥४० सदनाग्रलग्न हरिनीलरुचां पटलेन सामिपिहितं ददृशे । वपुरैन्दवं युवतिभिः सहसा निशि यत्र राहुपरिदष्टमिव ॥४१ ललनामुखाम्बुरुहगन्धवहो गृहदीर्घिकातनुतरङ्गभवः । भ्रमति स्म यत्र पवनः सततं गणयन्निव ध्वजदुकूलपटान् ॥४२ रविमण्डलं विमलरत्न भुवि प्रतिबिम्बितं सपदि मुग्धवधूम् । तपनीयदर्पणधिया दधतीमवलोक्य यत्र च जहास सखी ॥४३ समकारयन्न परिखावलयं न च यत्र शालमपि बाहुबली । प्रतिपक्षभीतिपिशुनेन सेता किमनेन कृत्यमिति मानधनः ॥४४ सकलावनीशमुकुटाग्रमणीद्युतिमञ्जरीज टिलिताङ्घ्रियुगः । तदलंचकार पुरमप्रतिमो नृपतिः प्रजापतिरिति स्वगुणैः ॥४५ महतां वरे सकलसत्वचयस्थितिराजिते प्रविमलात्मगुणे । श्रियमाप यत्र कमलाप्यपरां वियति स्थिता निशि कलेव विधोः ॥४६ स्थिरसंगतो विनयसारधनो नयवर्त्मनि स्थितविशुद्धमतिः । स्ववशीकृताक्षहृदयप्रसरो विरराज यः स्वयमिव प्रशमः ॥४७
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शिरीष के फूल के समान, तट पर लगे हुए गरुड मणियों की किरणें शेवाल खाने के कुतूहल से युक्त मदोन्मत्त हंसियों को छकाया करती हैं । भावार्थ - गरुडमणि की किरणों को शेवाल समझ कर मदमाती हंसियाँ खाने के लिये आती हैं परन्तु शेवाल न होने से निराश हो जाती हैं ॥ ४० ॥ जहाँ महलों के अग्रभाग पर लगे इन्द्र नीलमणियों की किरणों के समूह से आधा ढँका हुआ चन्द्रमा का शरीर रात्रि में स्त्रियों के द्वारा सहसा ऐसा देखा जाता है मानों राहु के द्वारा ही ग्रस्त हो रहा हो ।। ४१ ।। जहाँ स्त्रियों के मुखकमल की सुगन्धि को धारण करनेवाला तथा गृहवापिकाओं की पतली-पतली तरङ्गों से उत्पन्न वायु निरन्तर इस प्रकार घूमता रहता था मानों ध्वजाओं के रेशमी वस्त्रों की गिनती ही कर रहा हो ॥ ४२ ॥ जहाँ निर्मल रत्नमय भूमि में प्रतिबिम्बित सूर्यबिम्ब को सुवर्णमय दर्पण समझ सहसा उठाती हुई भोली स्त्री को देख सखी उसकी हँसी उड़ाती थी ॥ ४३ ॥ जहाँ भुजाओं के बल वाले तथा मानरूपी धन को धारण करनेवाले राजा ने न परिखा चक्र बनवाया था और न कोट ही । क्योंकि वह कहता था कि ये दोनों शत्रुभय को सूचित करनेवाले हैं अतः इनके रहने से क्या कार्य है ? ।। ४४ ।। समस्त राजाओं के मुकुटों के अग्रभाग में संलग्न मणियों की कान्तिरूपी मञ्जरी से जिसके चरणयुगल व्याप्त थे तथा जिसकी कोई उपमा नहीं थी ऐसा राजा प्रजापति अपने गुणों से उस नगर को अलंकृत करता था ।। ४५ ।। जिस प्रकार रात्रि के समय आकाश में स्थित चन्द्रमा की कला अद्वितीय शोभा को प्राप्त होती है उसी प्रकार समस्त पराक्रमसमूह की स्थिति से सुशोभित अत्यन्त निर्मल आत्मगुणों से युक्त उस महाश्रेष्ठ राजा में स्थित लक्ष्मी अद्वितीय शोभा को प्राप्त हो रही थी ।। ४६ ।। जो धैर्य शाली था, विनय ही जिसका श्रेष्ठ धन था, जिसकी निर्मल बुद्धि नीतिमार्ग में स्थित थी और जिसने इन्द्रियों तथा १. सतां ब० । २. स्वयमपि म० ।