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पांचवा सर्ग
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( ९६ ) "सभी प्रजा शासित प्रेम-भूप से विलोकिये मर्त्य-अमर्त्य-लोक मे, कि प्रेम ही, हे प्रभु | देव-लोक है, कि स्वर्ग ही अन्य स्वरूप प्रेम का।"
( ९७ ) "प्रिये । सदा प्रीति प्रशान्ति-काल की बनी स-शक्ता परिवादिनी-समा, अशान्ति मे भ्रान्ति-हयाधिरोहिणी सँवारती आकृति कान्ति-कारिणी।"
"न प्रेम को नाथ । प्रतीति अन्य की, स्वकीय जिह्वा करता प्रयुक्त है, प्रवृत्त हो दो दृग बातचीत में कदापि मध्यस्थ न चाहिए उन्हें ।"
"कराह प्रेमी हृदयाब्धि से, प्रिये । उठी, वनी पुण्य-पयोद-मडली। तथैव प्रेमाग्नि क्षण-प्रभा वनी, दगम्बु-बुन्दावलि धार-सी गिरी।
'वीणा । 'भ्रान्ति के घोडे पर सवार ।