Book Title: Vairagyarati
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ 222 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितां [ अष्टमः सर्गः मन्दभाग्यामपि भवान् , भगवांश्चोदधार माम् / ततोऽनुसुन्दरः प्रोचे, गुणो भगवतो ह्ययम् // 838 // स्वभक्तमुद्धरत्येष, लोकमार्थे ! न संशयः / बद्धमप्यात्मचौर्येण, य एवं माममोचयत् // 839 // आनीतो वर्त्मनाऽनेन, नरकप्रस्थितोऽप्यहम् / पापिष्ठा अपि भक्त्याऽस्य, मुच्यन्ते नात्र संशयः // 840 // कार्या त्वया न कृच्छेग, बुद्धाऽस्मीत्यवभावना / अकलङ्कादिभिः पूर्वं, यन्नाहमपि बोधितः // 841 // तथा झ्यतया स्वस्य, पापकर्मव्यये सति / त्वत्तोऽपि ह्यतिकृच्छेग, प्रबुद्धोऽहं जिनागमे // 842 // कालादिहेतुभिः पापं; यदा जन्तोर्विलीयते / तदाऽसौ बुध्यते तत्त्वं, गुरवः सहकारिणः // 843 // ततः सुललिता प्राह, विगता मेऽवभावना / किन्तु दोक्षां समादास्ये, पित्रोराज्ञां विना कथम् // 844 // दीक्षानामापि न ग्राह्यमननुज्ञातया मया / प्रतिज्ञातमिदं ह्यस्ति, पूर्व ताताम्बयोः पुरः / / 845 // ततोऽनुसुन्दरः प्राह, माऽऽर्थे ! भैषीस्तवागतो / पितरौ बहलः कोलाहलश्चात्रान्तरेऽजनि // 846 // सुमङ्गलान्वितश्चैत्ये, मनोनन्दनसंज्ञके / राजा मगधसेनोऽथ, प्रविष्टः सपरिच्छदः // 847 / / नत्वाऽर्हन्तं तथाऽऽचार्य, साधून सुललितानतः / नत्वाऽनुसुन्दरनृपं, निषण्गोऽसौ तदन्तिके // 848 // सुमङ्गलाऽपि विहितनिःशेषप्रतिपत्तिका / स्थिता सुललितामूर्ध्याघ्रायाऽऽलिङ्गय तदन्तिके // 849 // .. आनन्दगद्गदगिरा, प्राह क्त्से ! समुत्सुकौ / आवां त्वदर्शने त्यक्त्वा, राज्यं त्वत्पार्श्वमागतौ // 850 // न प्राप्नोति रतिं वत्से !, जनकत्ते त्वया विना / तब स्नेहानले चैष, जनो दंदह्यते सदा // 851 / / वार्ताऽपि नावयोर्दत्ता, भवत्या तु कठोरया / अङ्गारोग्यादिसंसूचाकरी प्रेमाब्धिचन्द्रिका // 852 // ततः सुललिता प्राह मातः ! किं बहुभाषितैः / निर्मिथ्यो युवयोः स्नेहः, शीनं व्यक्तीभविष्यति // 853 // अहं दीक्षा ग्रहीष्यामि, नावं संसारवारिधेः / ततो यदि युवां, मेऽद्य, वारणं न करिष्यथः // 854 // ग्रहीष्यथस्तथा दीक्षां, निर्विकल्पं मया सह / यौष्माकीणस्तदा स्नेहः, प्रतीतिमुपयास्यति // 855|| राजा मगधसेनस्तच्छ्रुत्वा प्राह सुमङ्गलाम् / आदावेव बबन्धेयं, देवि ! वत्साऽऽवयोर्मुखम् // 856 // निर्बबन्ध दृढं चित्तं, दीक्षायां च कुतोऽन्यथा / ईदृग्वचनविन्यासः, स्यादस्या मोहनाशकृत् / / 857 // अनया साधु च प्रोक्तं, युक्तमेवाधुनाऽऽवयोः / सहानया प्रव्रजनं, निर्मिथ्यस्नेहसूचकम् // 858 // देवाज्ञैव प्रमाणं मे, प्राहेत्यथ सुमङ्गला / ततो हृष्टा सुललिता, पतिता पादयोईयोः // 859 // तया संक्षिप्य वृत्तान्तः कथितश्चानुसुन्दरः / चारित्रपरिणामोऽभूद् , भावतोऽपि ततस्तयोः // 860 // तावन्वमोदत गुरुस्ताभ्यां दीक्षार्थमर्थितः / अथोल्लसन्महानन्दमहोत्सवमनोहरम् // 861 // स्फुरज्ज्योतिर्दिगुद्योतिदेवसम्पातमद्भुतैः / मुखरं तूर्यनिर्घोषैर्भूरिभव्यैः समाकुलम् // 862 // मुनिवृन्दैस्तदापूर्ण, स्मयमानमिवाबभौ / अनुसुन्दरराजादिप्रवज्याऽवसरे वनम् // 863 // ततो मगधसेनश्च, श्रीगर्भश्च महीपती / राज्यं पुरन्दरायैव, रक्षायै ददतुः स्वयम् // 864 // विधिना तानि सर्वाणि, सूरिणा दीक्षितान्यथ / दत्ता संवेगवृद्धयर्थं, देशना च सुधोपमा // 865 // ययुस्तदन्ते स्वस्थानं, देवा लोकाश्च भाविताः / साध्योऽपि च महाभद्राऽन्धिता गुरुनिदेशतः // 866 // अथादित्यो ययावस्तं, कृता चावश्यकक्रिया / स्वाध्यायलीनैर्मुनिभिः, प्रदोषश्चातिलचितः // 867 // .

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