Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 170
________________ श्री वैराग्य शतक १४७ आत्मा अधिक अधिक वार दुष्टता सेवे छे जेथी विषम दशाने प्राप्त थतो दुःखनो ज अनुभव करी मानवताने वेची भवो भव रखडे छे, तेम आ आत्मा गमे तेटलुं मळे तो पण धरातो ज नथी. जेम जेम भोगो वधता जाय छे तेम तेम तृष्णा वधती ज जाय छे अने अंते कंचन अने काम माटे दुर्ध्यानथी मरी दुर्गतिमां भयंकर दुःखोनो अनुभव करे छे. माटे आ मानव भव थोडा कालना अने अंते नाश थनारा तुच्छ विषयोनी पाछळ महा पापो करी तारा भावि अनंत कालने भयंकर न बनाव पण सम्यक् धर्मनी आराधना वडे सकल दुःखोनो नाश करी तारूं साचुं सचिदानंद स्वरूप प्राप्त कर. मानव भव पांच पचास वर्षना एक भवना ज सुख माटे नथी पण सामे रहेल अनंत कालने सुधारी लेवानुं (सरवैयुं काढवानु) अमूल्य साधन छे ते तुं भूली न जा. आज, कालने जवाबदार छे. माटे काल न बगडे तेनो तुं आजने आज विचार कर, माटे विवेकी बनी शरीर धन काम भोगादि पुद्गल सामग्रीनी तृष्णा छोडी तारा स्वरू पनो विचार कर. सुख तारा स्वरूपमां छे, बहारथी नहि मळे, बीजानो दोष जोवामां राची माची रहेलो तुं तारा पोतामां रहेला अनेक दोषो तरफ दृष्टि कर. जागवाना स्थानमां प्रमाद न कर, रोगो जरा अने मृत्यु (शत्रुओ) तारो

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