Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Vinitpragnashreeji
Publisher: Chandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust

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Page 14
________________ आशीर्वचन य आगमों में उत्तराध्ययनसूत्र मुझे अतिप्रिय है । जब जब इसके स्वाध्याय का अवसर मिलता है तब तब मन में चिन्तन उभरता है कि कितना गहरा एवं व्यापक 'जीवनदर्शन' भरा पड़ा है इस आगम में । किसी मनीषी ने ठीक ही कहा है: 'यदिहास्ति तदन्यत्र' यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्' यहां नीति है, धर्म है, सामाजिक शिष्टाचार है, विनय है, अनुशासन है, अध्यात्म है, अनासक्ति का महत्त्व है, इतिहास है, पुराण है, कथा है, दृष्टान्त है और तत्त्वचर्चा है । यह गूढ भी है और सरल भी है । इसमें आन्तरिक जगत का मनोविश्लेषण भी है और बाह्यजगत की रूप रेखा भी है । वस्तुतः उत्तराध्ययनसूत्र जीवन की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत करता है । यह जैन जगत की गीता है, अतएव इसकी उपादेयता एवं प्रासंगिकता सार्वकालिक एवं सार्वलौकिक है । मेरी प्रबल इच्छा थी कि कोई उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित दार्शनिक पक्ष को इस प्रकार व्याख्यायित करे कि जीवन के लिये उसकी उपादेयता का महत्त्व जनसाधारण को भी ज्ञात हो । मुझे प्रसन्नता है कि यह कार्य मेरी अन्तेवासिनी साध्वी विनीतप्रज्ञा ने यथाशक्य पूर्ण करने का प्रयास किया है । परमात्मा महावीर की अन्तिमवाणी उत्तराध्ययनसूत्र पर उसने ‘उत्तराध्ययनसूत्र का दार्शनिक अध्ययन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्त्व' के नाम से अपना 'शोधप्रबंध' लिखा है । उसने. 1 . उत्तराध्ययनसूत्र के जीवनदर्शन' को सर्वग्राह्य बनाने की पूरी कोशिश की है । Jain Education International इसके लिये सर्वप्रथम उसने गुरूगम से उत्तराध्ययनसूत्र मूल एवं उसके व्याख्या साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया है । आगम मर्मज्ञ एवं प्रबुद्धचिन्तक डॉ. सागरमलजी जैन साहब की दुर्लभ सन्निधि में उसका अनुशीलन परिशीलन किया है । सोने में सुहागा की तरह डॉ. साहब के मौलिक चिन्तन से उसकी प्रज्ञा का परि कार हुआ है । तत्पश्चात् ही इस शोधप्रबंध का लेखन प्रारंभ हुआ है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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