Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ इस कयाका कथाशरीर इसके 'उपमितिभवप्रपंचा' इस नामसे ही प्रतिपादित होता है। क्योंकि इसमें एक कथाके मिपसे (वहानेसे) संसारके प्रपंचोंकी उपमिति अर्थात् समानता वतलाई गई है। इस संसारके प्रपंचका अर्थात् विस्तारका यद्यपि सभी प्राणी प्रत्यक्ष अनुभवन करते हैं-इसे सब ही जानते हैं, तो भी यह परोक्ष सरीखा जान पड़ता है, इस लिये यह वर्णन करनेके योग्य समझा गया। इस प्रकार भ्रम और अज्ञानका नाश करनेके लिये यह स्मृतिरूपी बीजको उगानेवाला कथाका अर्थ संग्रह करके अर्थात् कथाके भेद और उसके श्रोता आदि बतलाकर अब कयाशरीर अर्थात् कयाकी रचना RANA. __ यह कया दो प्रकारका है, एक अन्तरंग और दूसरी बाह्य । इनमेंसे पहले अन्तरंगकाशरीरको अर्थात् अन्तरंग रचनाको बतलाते हैं: अन्तरंगकथाशरीर। इस कयाके स्पष्ट रीतिसे आठ प्रस्ताव (प्रकरण ) किये जायेंगे। उनमें जो विषय कहे जावेंगे, वे इस प्रकार हैं: १. प्रथम प्रस्तावमें मैने जिस हेतुसे यह कथा इस प्रकारसे रची है, उसका प्रतिपादन किया जायेगा। समन नेत, परन्तु दूसरे जो प्राप्रमादि विद्वान् है-जो प्राकृत नहीं पड़ते हैंनहीं समझते है, इससे लाभ नहीं उठा सकते । ऐसा जान पड़ता है कि, 'दुर्विदग्ध' शब्द देकर प्रन्यकत्ताने वेदानुयायी विद्वानोंपर आक्षेप किया है, जो मुसोप्य प्रायनको भी नहीं पड़ते हैं। प्रन्यसत्ताक समयमें जैनी ही बहुत करके प्रान पहने थे । मादाण विद्वान् भी इस अपूर्व प्रत्यको पढ़कर अपना कल्याण करें, इस अभिप्रायसे ही यह प्रन्य संस्कृतमें रचा गया है। इन पुस्तकमें जो फिछपकर प्रकाशित होती है, केवल पहला प्रस्ताव है। , इसके आगे प्रायः इतने ही य? २ सात प्रस्ताव और है। वे आगे क्रमसे प्रकाशित किये जागे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 215