Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Jayanandsuri, Raivatvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 429
________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ४१४ होगा । नागिल ने पूछा कि - हे भगवन् ! सर्व धर्मों में कौन-सा धर्म श्रेष्ठ है ? मुनि ने कहा कि - हे भद्र ! जिनेन्द्रों के द्वारा कहा हुआ सम्यक्त्व पूर्वक शीलादि धर्म प्रशंसनीय है । पूज्यों के द्वारा कहा गया है कि जिनके निज शील वहन करने रूप घनसार के परिमल से यह संपूर्ण भू-वलय सुरभित किया जाता है, उन पुरुषों को बार-बार नमस्कार हो । और यह भी है कि I एक क्षण के लिए भावना और दान है तथा तप भी नियति स्थितिवाला है, किन्तु यावज्जीव शील का परिपालन तो दुष्कर है। कलहकारी, जन-मारक और सावद्य योग में निरत नारद भी जो, सिद्ध-गति को प्राप्त करता है, वह शील का ही माहात्म्य है । इत्यादि गुरु के वाक्य से प्रतिबोधित हुआ सम्यक्त्व, शील और विवेक रूपी दीपक का स्वीकार कर उस दिन से लेकर वह श्रावक कृत्य को करने लगा । एक दिन नन्दा ने उसे कहा कि- हे स्वामी ! आपने अच्छा किया है । आत्मा को विवेक में स्थापित किया है, क्योंकि " जिनेश्वरों की पूजा, मुनियों को दान, साधार्मिकों का वात्सल्य, शील और परोपकार- यें विवेक रूपी वृक्ष के पल्लव हैं । उसने कहा- आत्मा के लिए विवेक से धर्म करना चाहिए, क्योंकि सदा ही प्राज्ञ पुरुष विवेक रूपी अंकुश की शंका से दुःखित है और अजाओं के यूथ-पति के समान ही मूर्ख सदा हँसा जाता है । यह सुनकर आनंदित हुई नन्दा उसकी भाव से सेवा करने लगी । एक बार नन्दा पिता के घर गयी । नागिल रात्रि के समय चन्द्र

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