Book Title: Upasya Pade Upadeyta
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 46
________________ के लिए दर्शन विशुद्धि के पुष्ट निमित्त के रूप में आत्मज्ञानी और सर्वज्ञ वीतराग दोनों एक समान उपास्य हैं ऐसा स्वीकार दिगम्बरश्वेताम्बर उभय श्रेणी के शास्त्रों में प्रकट दिखाई देता है। यथा 'सर्वज्ञ वीतरागस्य। स्ववशस्यास्य योगिनः। न कामपि भिद्दां क्वापि। तां विग्नो हा ! जडा वयम्॥' - नियमसार गाथांक 146 टीका-पद्यांक 256 अर्थ- सर्वज्ञवीतराग में तथा जिसका मन आत्माकार है वैसे इस स्ववश योगी में कभी भी कोई भी भेद नहीं है, फिर भी ओहो। हम जड़ जैसे हैं कि जिससे उनमें भेद मानते हैं। 'खाइगसम्मदिहि जुगप्पहाणागमं च दुप्पसह। दसवेयालियकहियं जिणं व पूएज तियसवई।।25।। तं तह आराहेजा जह तित्थयरे य चउवीसं॥22॥ एवं नियनियकाले जुगप्पहाणो जिण व्व दट्ठव्वो॥26॥ .................. महानिसीहाओ भणियमिणं॥34॥' श्री जिनदत्तसूरि कृत 'उपदेशकुलकम्' श्री महानिशीथ सूत्र की साक्षी से आगम प्रमाण और अनुभव प्रमाण से युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी कह गए कि क्षायिकदृष्टिवंत की, युगप्रधानों की, आगम की तथा जो सिर्फ दशवैकालिक सूत्र कहेंगे उन दुप्पसह साधु की भी श्री जिनेश्वर भगवान की तरह त्रिदशपति अर्थात् इन्द्र पूजा करें।' इस प्रकार अपने-अपने समय में विद्यमान युगप्रधानों को जिनेश्वर 36

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