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परदुःखकातर 'अर्चना' जी / १७५
हैं वह आ सकें तो मैं उनसे मिलना चाहूँगी ।) वह उसके लिए सहर्ष तैयार हो ये क्योंकि वह भी साधु-सन्त लोगों से, विशेष कर योग में रुचि रखने वालों से मिलना बहुत पसंद करते हैं। इसके पश्चात् हम दूसरे दिन महासतीजी से मिले । महासतीजी एवं श्री चन्द्रशेखरजी की आपस में चर्चा काफी देर तक चलती रही । श्री चन्द्रशेखरजी आपसे प्रथम चर्चा में ही काफी प्रभावित हुए एवं उन्होंने उस दिन के पश्चात् लगभग हर रोज आपसे मुलाकात एवं चर्चा की। एक दिन मैंने श्री चन्द्रशेखरजी से कहा कि क्यों न सभी विद्यार्थियों को महा० सा० के पास लेकर चला जाय । हमने इस विषय में महासतीजी से चर्चा भी की तो आपने बड़े ही विनम्र शब्दों में कहा - 'मुझे इस विषय में ज्यादा जानकारी नहीं है, फिर भी आप लोग आना चाहें तो बड़ी खुशी होगी ।'
कक्षा के हम लगभग ३०-३५ भाई-बहिन जून १९८४ के एक रविवार को आपके पास आये | आपने उस दिन विशेष रूप से "ध्यानयोग" पर व्याख्यान दिया जिसे सबने बड़ी तन्मयता से सुना । इसके पश्चात् कुछ भाई-बहिनों ने विनती की कि आप प्रति रविवार इस विषय में हमारा मार्गदर्शन करें तो आपकी बहुत कृपा होगी । आपने सभी का उत्साह देखते हुए स्वीकृति प्रदान कर दी । विनती करने वालों में श्री चन्द्रशेखरजी आजाद, श्री बालकृष्ण, श्री प्रकाश फणसे, श्री रसिकभाई तुरखिया, कुमारी विजया खडीकर, कुमारी शुंभागी खडीकर, कुमारी शोभा दम्माणी, कुमारी सरिता खण्डेलवाल, श्रीमती मृदुला खेर एवं अन्य भाई बहिन भी थे। आप के पास प्रति रविवार आने का क्रम शुरू हो गया । लगभग ५ सप्ताह तक आपने " ध्यानयोग" की व्याख्या की । व्याख्यान में आपने ध्यान की जिन पाँच पद्धतियों का विश्लेषरण किया, उनके नाम इस प्रकार हैं
१. प्रार्थनामुद्रा २. योगमुद्रा ३. दीपकमुद्रा ४. वीतरागमुद्रा ५. श्रानन्द
अवस्था ।
ध्यानयोग में भाई- बह्नों का उत्साह देखते हुए आपने प्रायोगिक प्रशिक्षण भी देना आरम्भ कर दिया । यह आपके अद्भुत प्रभाव का ही फल था कि वर्षा धी और तूफान की भी चिन्ता न करते हुए जिज्ञासु विद्यार्थी निरन्तर आते रहे । भविष्य में भी आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा, हम ऐसी प्राशा करते हैं ।
अन्ततः हम यही कहेंगे कि आपने हमें जीवन का उद्देश्य समझाया । हमारी यही प्रार्थना है कि आप अपने गन्तव्य स्थल की ओर प्रबाधगति से बढ़ते हुए हम जैसे दिशाहीन प्राणियों का मार्ग प्रशस्त करते रहें ।
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