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त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी ___(५) पू.महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराजा श्री गुरुतत्त्व विनिश्चय नामक ग्रंथमें कहते हैं कि, जीत व्यवहार तीर्थ पर्यन्त होता ही है : क्योंकि, द्रव्यादि के विमर्श-विचारपूर्वक अविरुद्ध उत्सर्गापवाद-यतना ही प्राय: जीतरुप है। मात्र आगमादि के कालमें सूर्यप्रकाश में जैसे ग्रहप्रकाश का अंतर्भाव होता है, वैसे ही जीतव्यवहार का आगमादि व्यवहार में अंतर्भाव होता है, यहां प्रश्न उठाते हैं कि-'तो फिर श्रुतकालीन जीत भी तत्त्वतः श्रुत ही है, यह कहने में दोष क्या है ?' इस प्रश्न के उत्तर में ग्रंथकार परमर्षि कहते हैं कि-'जब जीत की प्रधानता हो तब उसका उपयोग करना है, इस कारण जिस अंशमें जीतमें श्रुत की
अप्राप्ति हो, उस में जीत की ही प्रधानता है।' ___“किञ्च जीतव्यवहारस्तावदातीर्थमस्त्येव, द्रव्यादिविमर्शाविरुद्धोत्सर्गापवादयतनाया एव प्रायो जीतरुपत्वात्, केवलमागमादिकाले सूर्यप्रकाशे ग्रहप्रकाशवत्तत्रैवान्तर्भवति न तु प्राधान्यमश्नुते । तथा च श्रुतकालीनं जीतमपि तत्त्वतः श्रुतमेवेति को दोषः ? कदा तर्हि तस्योपयोगः ? इति चेत्, यदा तस्य प्राधान्यम्, अत एव यदंशे जीते श्रुतानुपलम्भस्तदंशे इदानीं तस्यैव प्रामाण्यमिति॥" ।
(६) इसी ग्रंथ में, आगे चलकर-'यदि जीतका आदर किया जाएगा तो दुनियामें कौन सी आचरणा ऐसी है कि जो प्रमाण नहीं बनेगी? क्योंकि, सभी स्वपरम्परागत जीत का आश्रय करनेवाले हैं।' ऐसी शंका का निराकरण करते हुए, ग्रंथकार परमर्षिने फरमाया है कि, जो जीत सावद्य है, उससे व्यवहार नहीं होता : जो जीत असावद्य है, उससे ही व्यवहार होता है।
ग्रंथकार परमर्षिने आगे यह बात भी पेश की है कि, पासत्था एवं प्रमत्त संयतोने आचीर्ण एवं उससे ही अशुद्धिकर जीत यद्यपि महाजनाचीर्ण हो तो भी उस जीत से व्यवहार नहीं करना चाहिए । जो जीत एक भी संवेगपरायण दान्त पुरुषने आचारणमें लिया हो, वह जीत शुद्धिकर है इसलिए उससे व्यवहार करना चाहिए। यह पाठ इस प्रकार है