Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौथा उद्देशक]
[३५७
२०-२३
२४-२५
वजिका (गोपालक बस्ती) में विकृति सेवन हेतु जाने के पूर्व स्थविर की अर्थात् गुरु आदि की आज्ञा लेना आवश्यक है, आज्ञा मिलने पर ही जाना कल्पता है। चरिकाप्रविष्ट या चरिकानिवृत्त भिक्षु को आज्ञाप्राप्ति के बाद ४-५ दिन में गुरु आदि के मिलने का प्रसंग आ जाय तो उसी पूर्व की आज्ञा से विचरण या निवास करना चाहिए, किन्तु ४-५ दिन के बाद अर्थात् आज्ञाप्राप्ति से अधिक समय बाद गुरु आदि के मिलने का प्रसंग आ जाय तो सूत्रोक्त विधि से पुनः आज्ञा प्राप्त करके विचरण कर सकता है। रत्नाधिक भिक्षु को अवमरानिक भिक्षु की सामान्य सेवा या सहयोग करना ऐच्छिक होता है और अवमरालिक भिक्षु को रत्नाधिक भिक्षु की सामान्य सेवा या सहयोग करना आवश्यक होता है। रत्नाधिक भिक्षु यदि सेवा-सहयोग न लेना चाहे तो आवश्यक नहीं होता है। अवमरात्निक भिक्षु ग्लान हो तो रत्नाधिक को भी उसकी सेवा या सहयोग करना आवश्यक होता है। अनेक भिक्षु, अनेक आचार्य-उपाध्याय एवं अनेक गणावच्छेदक आदि कोई भी यदि साथ-साथ विचरण करें तो उन्हें परस्पर समान बन कर नहीं रहना चाहिए, किन्तु जो उनमें रत्नाधिक हो उसकी प्रमुखता स्वीकार करके उचित विनय एवं समाचारी-व्यवहार के साथ रहना चाहिए।
२६-३२
उपसंहार
सूत्र १-१०
११-१२ १३-१४ १५-१७ १८ १९-२३ २४-२५ २६-३२
इस उद्देशक मेंआचार्य उपाध्याय गणावच्छेदक के विचरण करने में साधुओं की संख्या का, सिंघाड़ाप्रमुख भिक्षु के कालधर्म प्राप्त होने पर उचित कर्तव्य का, आचार्य के दिवंगत होने पर या संयम त्यागने पर योग्य को पद पर नियुक्त करने का, बड़ीदीक्षा देने सम्बन्धी समय के निर्धारण का, गणान्तर में गये भिक्षु के विवेक का, वजिकागमन एवं चरिका प्रवृत्त या निवृत्त भिक्षु के विवेक का, रत्नाधिक एवं अवमरात्निक के कर्तव्यों का, साथ में विचरण करने सम्बन्धी विनय-विवेक, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है।
॥चौथा उद्देशक समाप्त ॥