Book Title: Titthayara Bhavna
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Unknown

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Page 188
________________ व्यापक, विशाल दृष्टि से ही 'जिनशासन' को गरिमा प्राप्त हुई है और उसके किसी भी तथ्य या कथ्य को तो क्या उस शीर्षक 'जिनशासन' को भी कोई प्रवादी खण्डित नहीं कर पाया। संसार की चेतन-अचेतन समस्त वस्तुएँ अनेक धर्मात्मक हैं। उस वस्तु का कथन स्याद्वाद शैली से किया गया है। अनेकान्त का द्योतक यह 'स्यात्' शब्द वस्तु के विवक्षित धर्म को कहता है। यह स्यात्' शब्द एकान्त का निराकरण करके अनेकान्त का निरूपण करता है। इसलिए स्यात् पूर्वक वाद(या कथन) करना स्याद्वाद है। इस स्याद्वाद के द्वारा ही समस्त पदार्थों का यथार्थ विवेचन होता है। इसलिए शुद्ध-अशुद्ध, चेतन-अचेतन, लोक-अलोक सर्वत्र व्याप्त पदार्थों में यह अनेकान्त धर्म और स्याद्वाद शैली की उपयोगिता है। इसी कारण से आचार्यों ने इस जिनशासन को अनेकान्त शासन या स्याद्वाद शासन कहकर भी पुकारा है। शासन के ये विशेषण व्यापकता लिए हुए हैं। प्रमाण और नयों की युक्ति से वस्तु का जहाँ विवेचन हो वह युक्त्यनुशासन कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र देव ने जिनशासन को 'यक्त्यनशासन' नाम दिया है। इसी नाम से उन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थ भी रचा है। यह संज्ञा भी व्यापक है। इसी युक्त्यनुशासन ग्रन्थ के अन्त में कहा है कि भगवन् ! आपका यह तीर्थ सर्वोदयी है। अर्थात् समस्त जीवों का अभ्युदय, वैभव बढ़ाने वाला है, इसलिए उन्होंने इसे 'सर्वोदय तीर्थ' नाम दिया। सर्वोदय शासन भी इसे हम कह सकते हैं यह संज्ञा भी व्यापक है। महान् तार्किक, जिनशासन के मर्मज्ञ, जिनमत के संरक्षक, उद्भट दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र की चिन्तन धारा से ये व्यापक नामकरण भगवान् की भक्तिवश प्रकट हुए। उन्होंने ये संज्ञाएँ, ये नाम जिनशासन की भक्ति में कुलाचें भरते हुए निश्छल हृदय से निःसृत किए हैं। इसी कारण से इन नामों को सभी आचार्यों ने स्वीकारा है। ये सभी विशेषण 'जिनशासन' के गौरव का सर्वांगीण विकास और माहात्म्य दिखलाते हैं। जिनशासन में श्रमण और श्रावक दोनों धर्मसमान रूप से व्याख्यायित हैं। दोनों धर्मों का पालन करने वाले 'जिनशासन' के भक्त और जिनशासन में दीक्षित कहे जाते हैं। श्रमण और श्रावकों के भक्त की अनेक क्रियाएँ हैं। उन क्रियाओं में 'समाचार' की क्रिया मुख्य है। 'समाचार' से तात्पर्य आपसी व्यवहार से है। श्रावक, क्षुल्लक, आर्यिका, मनिराज आदि की समाचार की क्रियाओं के भिन्न-भिन्न संज्ञा शब्द हैं। इन शब्दों को बोलते हए पता चलता है कि यह किस पद पर स्थित है और इसके साथ क्या शब्द बोलकर व्यवहार किया जाता है? इन्द्रनन्दिसूरि ने सभी दों पर आरूढ़ व्यक्ति के लिए अलग-अलग क्रियावाची शब्द कहे हैं। निर्गन्थानां नमोऽस्तु स्यादार्यिकाणाञ्च वन्दना। श्रावकस्योत्तमस्योच्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते॥५१॥ अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु को नमोऽस्तु, आर्यिकाओं को वन्दना और उत्तम श्रावकों को इच्छाकार कहा जाता है। यदि इनमें से किसी एक क्रिया को लेकर शासन नाम दिया जाता है तो वह क्रिया व्यापक विशेषण नहीं बन सकती है। क्रिया विशेषण का प्रयोग भाषा साहित्य में क्रिया की विशेषता बताने के लिए किया जाता है। जैसे कि वह शीघ्र जा रहा है, तो जाने की क्रिया का विशेषण 'शीघ्र' हुआ। वस्तुतः यह विशेषण कभी भी किसी 'संज्ञा' के विशेषण नहीं बनते हैं। कोई भी संज्ञा शब्द सदैव क्रियावान नहीं रहता है। जैसे कि 'जाना' सदैव नहीं होता है, उसी तरह सदैव 'वन्दना' क्रिया नहीं होती है। जिस समय पर वह क्रिया नहीं हो रही है, उस समय पर वह विशेषण निरर्थक है। नमन करना' भी क्रिया है, यह क्रिया वाची शब्द कभी जिनशासन को पूर्ण अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। जैसे 'जिनशासन' में 'जिन' शब्द सदैव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप से अवस्थित है, व्याप्त है, जैसे 'अनेकान्त

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